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महिला दिवस पर विशेष: रूढ़ियों को तोड़ किसी भी लड़ाई के लिए अब तैयार हैं लड़कियां

ये 2012 का साल था। गर्मियों के दिन शुरू हो रहे थे। सड़कों पर पेड़ों से झरे पीले पात बिछे थे। हवा में एक मीठी सी उदासी थी। धर्मवीर भारती ने ‘गुनाहों के देवता’ में जैसे इलाहाबाद का ज़िक्र किया था। वैसा ही इलाहाबाद मेरी आँखों के सामने था। तब शहर का नाम इलाहाबाद था। आज जब इस लेख को लिख रहा हूँ तो मेरा शहर प्रयागराज हो चुका है। ख़ैर एलनगंज से रेंगते हुए साइकिल इलाहाबाद विश्वविद्यालय के गेट तक पहुँच चुकी थी। निराला आर्ट गैलरी और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के बीच जिस छोटे से हिस्से में यूनियन हॉल की इमारत है, उसकी दीवार पर बाहर की तरफ एक पोस्टर लगा हुआ था। फ़िल्म ‘इशकज़ादे’ का पोस्टर। जिसमें परिणीति चोपड़ा हाथों में रिवाल्वर पकड़े ललकार रही थी और उसके पीछे अर्जुन कपूर छिपा हुआ था। 
इस पोस्टर में दुनिया भर का चुंबक उतर आया था। इसने मेरे ध्यान को किसी विराट लौहपर्वत की तरह अपनी ओर खींच लिया। इस आकर्षण के कई कारणों में एक कारण यह भी था कि इस फ़िल्म का एक ऑडिशन यहाँ इलाहाबाद विश्वविद्यालय पीछे कंपनी गार्डन के सामने भारतीय विज्ञान परिषद के हॉल में भी हुआ था। मैं भी इसके ऑडिशन में गया था।