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जलस्रोतों को न बचाया गया तो संकट में पड़ सकता है जीवन

prayagraj news : शरदेंदु सौरभ।
– फोटो : prayagraj

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हमारी संस्कृति जल के संचय और संरक्षण के प्रति जागरूकता के लिए जानी जाती है। इसके प्रति कभी उदासीनता हमारे न तो ग्रंथो में और न तो युग पुरुषो में देखने को मिलती है। सभी ने आगे बढ़कर जल संरक्षण के प्रयत्न में सहयोग किया है। बुनियादी बात है कि सत्यता से नकार नही जा सकता । आज तालाबो पर बढ़ते अतिक्रमण , सूखते जल स्रोत सबसे बड़े चिंता के कारण है। जीव, जंतुओं, पशु पंक्षियों का जीवन इन्हीं जल श्रोतों के इर्द गिर्द मंडराता है। यदि उन्हें पर्याप्त जल की मात्रा न उपलब्ध हो पाई तो उनका जीवन संकटग्रस्त हो जाता है। कुछ जलाशयों में तो प्रदूषित जल की स्थिति होने की वजह से तमाम प्रकार के संक्रमण फैल जाते है और पशु पक्षी इसका शिकार होते हैं।     जिस गंगा को भगीरथ ने पृथ्वी पर लाने के लिए इतनी कठोर तपस्या की उस गंगा को लेकर बहुत कागजी पुलाव पकाए जा रहे हैं। सरकारें एक के बाद दूसरा वायदा करती जा रही हैं, परंतु जमीनी हकीकत कुछ और ही है। जो आगे बढ़कर आंदोलन के लिए व्रत लेते है उनकी आवाज दबाने के कई तरीके निकाल लिए जाते हैं।जो गंगा हमारे जीवन की साक्षी है उसके अस्तित्व के साथ खिलवाड़ कब तक बर्दाश्त करते रहेंगे। अब सरकारी मशीनरी के ऊपर गंगा को छोड़ देना लाजिमी नहीं लगता , बल्कि जनमानस को एक सोच और आगे बढ़कर कदम से कदम मिलाकर इसे प्रदूषण से बचाने के लिए कारगर उपाय ही इसकी निर्मलता और अविरलता के लिए आवश्यक होगा ।कहना न होगा उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने गंगा – यमुना नदी को जीवंत प्राणी की श्रेणी में रखकर जो फैसला किया उसकी धनक जरूर दूर तक जाएगी और एक कानूनी जामा की पहनाया जा सका । इस मुहिम को कारगर बनाये रखने के लिए हर प्रयत्न जरूरी है और एक जागरूक नागरिक होने के नाते हमें अपना धर्म निभाना चाहिए। अब हमें अपने अंदर संकल्प शक़्क्ति पैदा करनी होगी ठीक उसी प्रकार जैसा कि न्यूजीलैंड की माओरी जनजाति ने अपनी वंगानुयी नदी के लिए 160 साल तक संघर्ष जारी रखा … शरदेंदु सौरभ, अधिवक्ता, उच्च न्यायालय इलाहाबाद 

हमारी संस्कृति जल के संचय और संरक्षण के प्रति जागरूकता के लिए जानी जाती है। इसके प्रति कभी उदासीनता हमारे न तो ग्रंथो में और न तो युग पुरुषो में देखने को मिलती है। सभी ने आगे बढ़कर जल संरक्षण के प्रयत्न में सहयोग किया है। 

बुनियादी बात है कि सत्यता से नकार नही जा सकता । आज तालाबो पर बढ़ते अतिक्रमण , सूखते जल स्रोत सबसे बड़े चिंता के कारण है। जीव, जंतुओं, पशु पंक्षियों का जीवन इन्हीं जल श्रोतों के इर्द गिर्द मंडराता है। यदि उन्हें पर्याप्त जल की मात्रा न उपलब्ध हो पाई तो उनका जीवन संकटग्रस्त हो जाता है। कुछ जलाशयों में तो प्रदूषित जल की स्थिति होने की वजह से तमाम प्रकार के संक्रमण फैल जाते है और पशु पक्षी इसका शिकार होते हैं।

     

जिस गंगा को भगीरथ ने पृथ्वी पर लाने के लिए इतनी कठोर तपस्या की उस गंगा को लेकर बहुत कागजी पुलाव पकाए जा रहे हैं। सरकारें एक के बाद दूसरा वायदा करती जा रही हैं, परंतु जमीनी हकीकत कुछ और ही है। जो आगे बढ़कर आंदोलन के लिए व्रत लेते है उनकी आवाज दबाने के कई तरीके निकाल लिए जाते हैं।
जो गंगा हमारे जीवन की साक्षी है उसके अस्तित्व के साथ खिलवाड़ कब तक बर्दाश्त करते रहेंगे। अब सरकारी मशीनरी के ऊपर गंगा को छोड़ देना लाजिमी नहीं लगता , बल्कि जनमानस को एक सोच और आगे बढ़कर कदम से कदम मिलाकर इसे प्रदूषण से बचाने के लिए कारगर उपाय ही इसकी निर्मलता और अविरलता के लिए आवश्यक होगा ।
कहना न होगा उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने गंगा – यमुना नदी को जीवंत प्राणी की श्रेणी में रखकर जो फैसला किया उसकी धनक जरूर दूर तक जाएगी और एक कानूनी जामा की पहनाया जा सका । इस मुहिम को कारगर बनाये रखने के लिए हर प्रयत्न जरूरी है और एक जागरूक नागरिक होने के नाते हमें अपना धर्म निभाना चाहिए। अब हमें अपने अंदर संकल्प शक़्क्ति पैदा करनी होगी ठीक उसी प्रकार जैसा कि न्यूजीलैंड की माओरी जनजाति ने अपनी वंगानुयी नदी के लिए 160 साल तक संघर्ष जारी रखा … शरदेंदु सौरभ, अधिवक्ता, उच्च न्यायालय इलाहाबाद