थियेटर में पसंद की जा रही है फिल्म और लक्ष्मण मस्तुरिया के गीत
प्रसिद्ध रंग कर्मी श्री विजय मिश्रा अमित हैं सरपंच की प्रमुख भूमिका में
रायपुर – किसी प्रसिद्ध शायर ने कहा है, धान के पौधे की तरह होती हैं बेटियां, जो पिता के घर में पूरी जिंदगी रहे तो कुम्हला जाती है, लेकिन ससुराल जा के उसे चमन बना देती हैं। कुछ इसी थीम पर बनी है छत्तीसगढ़ी फिल्म ‘‘बहुरिया’’। नारी संवेदना और उसके सशक्तिकरण का परिचय देती यह फिल्म रिलीज हो चुकी है। महादेवघाट, ग्राम केसरा(पाटन) एवं रायपुर शहर में फिल्मांकित बहुरिया प्रभात टाकीज रायपुर में दर्षकों को पिछले चार दिनों से अपनी ओर खींचने में कामयाब हुई है। श्री मधुकर कदम की परिकल्पना और निर्देशन में बनी, कला दर्पण व्दारा प्रस्तुत फिल्म बहुरिया में कलाकारों ने उम्दा अभिनय कर छत्तीसगढ़ी फिल्म को नई ऊंचाई पर ले जाने की सफल कोशिश की है।
किसी भी निर्देशक के लिए इससे बड़ी सफलता भला क्या होगी। खासकर उन परिस्थितियों में जब छत्तीसगढ़ी सिनेमा अपने शिशु अवस्था में हो, जिन्हें बड़े-बड़े मल्टीप्लैक्स में स्थान नहीं मिल पाता, जबकि दूसरे राज्यों में स्थानीय भाषायी फिल्मों को विशेष तौर पर दिखाया जाता है। इतना ही नहीं, छत्तीसगढ़ के मल्टीप्लैक्स और मॉल में दूसरी भाषाओं की फिल्म बकायदा लगाई जाती है, लेकिन जिस संघर्ष और चुनौती से छत्तीसगढ़ी सिनेमा गुजर रहा है, उस दौर में फिल्म ‘‘बहुरिया’’ दर्शकों को न केवल अपनी ओर खींच रही है, बल्कि ढाई घंटे तक बांधकर भी रखती है। इसमें सह-निर्देशक आकाश कदम की दक्षता भी नजर आती है।
फिल्म बहुरिया छत्तीसगढ़ के ठेठ गांव की कहानी है, जिसमें नायक वासुदेव मंडल हैं, जिन्हें अभिनित किया है वरिष्ठ रंगकर्मी श्री घनश्याम शेंद्रे ने। वासुदेव अपने मालगुजारी के दौर में बेटे का ब्याह दिवंगत मित्र की बेटी से करता है और वचन देता है कि सही उम्र होने पर पठौनी कर बहू को घर ले जायेगा। ब्याह के उपरांत बारात लौटते समय दुल्हे की मां का निधन एक दुर्घटना में हो जाता है, जिससे दुखी वासुदेव मंडल बीमार रहने लगता है और उसकी पूरी धन दौलत ईलाज पर खर्च हो जाती हैै इन घटनाओं से उसके मन में बहुरिया के प्रति अपषकुन के भाव आ जाते हैं। वह उसका गवना (विदाई) नहीं कराता है और दुःखी जीवन व्यतीत करता है। फिल्म की कहानी समय के साथ आगे बढ़ती है। गाॅव के सरपंच की समझाईष से बहुरिया को लाने वासुदेव मंडल राजी हो जाता है। उसके आते ही वासुदेव मंडल के दिन फिरने लगते हैं। न केवल घर बल्कि गांव को वह नई राह दिखाती है। घनश्याम शेंद्रे ने अपने बेहतरीन डायलाग डिलिवरी से दर्शकों को आरंभ से अंत तक बांधे रखा।
फिल्म को देखकर लगता है कि सरपंच का किरदार निभा रहे विजय मिश्रा‘‘अमित’’ ने इस पात्र को संजीदगी से जिया है। छत्तीसगढ़ स्टेट पावर कंपनीज के अतिरिक्त महाप्रबंधक (जनसंपर्क) के पद पर रहते हुए श्री विजय मिश्रा हिंदी और छत्तीसगढ़ी रंगमंच के अमिट पहचान बन चुके हैं। पूरे फिल्म में कलाकारों का अभिनय देखने लायक है। बहुरिया रुख्मणी के रूप में रानू खान और उसके पति कन्हैया का अभिनय जानेंद्र रंहगडाले ने किया है। दोनों का भोलापन ग्रामीण संस्कारों से युक्त अभिनय से दर्शकों को विविध रसों का आनंद मिलता है। सूदखोर सेठ के रूप में देवेंद्र पांडे का अभिनय सराहनीय है। एजाज वारसी जेठू के किरदार में, अरूण काचलवार देवार गायक, दिलीप साहू मित्र कमल, देवेंद्र ध्रुव नाई और बहुरिया के भाई के किरदार में इरफान खान ने सधा हुआ अभिनय किया है।
मध्यांतर के पूर्व फिल्म थोड़ी धीमी लगती है, लेकिन दर्शक संवाद को अच्छी तरह समझ सकें, इसके लिये यह जरूरी था। दूसरे भाग में फिल्म दौड़ती है और रोचक लगती है। फिल्म में गांव, खेत, किसान, तरिया, गाड़ा, चैपाल, तुलसी चैरा नजर आती है, जो ग्रामीण परिवेश को दर्शाती है। स्व. लक्ष्मण मुस्तुरिया के गीत दर्शकों को मोह लेते हैं। “ कोन सुर बाजंव, बिरही अलापौं, कि गावों राग झुमरी” गाने में बहुरिया की वेदना दर्शाई गई है। इसे स्वर दिया है छाया चंद्राकर ने। उगती सूरूज म आरती उतारंव मोर तुलसी मइया, गांव के हर घर की तासीर बताता है, जिसमें बहुरिया सुबह स्नान करके सूर्य और तुलसी की आराधना करती है। महादेव हिरवानी, रीता शुक्ला और अरविंद ने भी अपने स्वर से मनमोहक गीत गढ़ें हैं। फिल्म में बताने का प्रयास किया गया है कि ग्रामीण परिवेश में लोग कितने खुशहाल होते हैं। अनेक कठिनाईयों के बाद भी हिम्मत नहीं छोड़ते। देवार गीत जिंदगी मड़ई मेला में दर्शक झूमने लगते हैं। बहरहाल छत्तीसगढ़ी फिल्मों के शैशव काल में इतनी अच्छी फिल्म बनना तारीफ के काबिल है।
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