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कितनी चिताएं… कितनी आहें, गंगा तू ये चुपचाप सहना, किसी से न कहना

पंडों के मुताबिक एक-एक दिन में रामगंगा घाट पर जलीं 70-70 चिताएं, पूरे घाट पर दिख रहे हैं चिताओं के निशान
बरेली। शहर के नजदीक से ही गुजरने वाली रामगंगा में कल-कल की आवाज तो जमाने से नहीं सुनी गई लेकिन इन दिनों यह नदी और खामोश हो गई है। सैकड़ों चिताओं की राख पड़ने के बाद उसकी धारा जगह-जगह ठहर गई है। सरकारी आंकड़े कुछ भी कहें, पंडों के मुताबिक अप्रैल के महीने में एक-एक दिन में 70-70 चिताएं जलने का हृदयविदारक नजारा उन्होंने देखा है। गंगातट पर बुझी चिताओं के निशान कुछ यूं चस्पा हो गए हैं कि दूर से ही गवाही देते हैं कि गुजरे दिनों में यहां क्या कुछ गुजरा है।नदी के घाट पर रोज सुबह यजमानों की तलाश में पहुंचने वाले पंडे यह दृश्य बर्दाश्त करने की ताव अपने अंदर नहीं पैदा कर पा रहे हैं। गंगा घाट पर होने वाले शुभ काम तो बंद हो ही गए हैं, रामगंगा में फेंके जाने वाले पैसों को लपकने के लिए दिन भर पानी में रहने वाले आसपास के गांवों के बच्चों ने भी अब उसके तट से दूरी बना ली है। वजह यह है कि मानव शरीर की हड्डियां हर तरफ इस कदर बिखरी हुई हैं कि जिनके पैरों में चुभने से न तट पर चलना मुमकिन रह गया है न नदी के अंदर। घाट पर चारों तरफ फैली अंतिम संस्कार की सामग्री ने पूरा नजारा और वीभत्स बना दिया है।

रामगंगा घाट पर रहने वाले पंडों के चेहरों पर भी इन दिनों सन्नाटा खिंचा हुआ है। यहां अंतिम संस्कार कराने वाले पंडा जितेंद्र गोस्वामी बताते हैं कि वह यहां बीस साल से ज्यादा समय से जजमानी कर रहे हैं लेकिन उन्होंने अपने जीवन में कभी इतने अंतिम संस्कार होते नहीं देखे जितने हाल ही के कुछ दिनों में हुए हैं। जितेंद्र गोस्वामी घाट पर चिताओं के निशान दिखाते हुए कहते हैं कि उनके सामने रामगंगा घाट पर एक-एक दिन में 70 से भी ज्यादा अंतिम संस्कार हुए हैं। जिन लोगों की मौत कोविड से हुई थी, उनके परिवार के लोग अंतिम संस्कार करके चले गए लेकिन अस्थियां लेने नहीं लौटे। 95 फीसदी से ज्यादा मामलों में ऐसा ही हुआ। इसी वजह से पूरे घाट पर अस्थियां बिखरी हुई हैं।जितेंद्र गोस्वामी बताते हैं कि उन्होंने कई लोगों को यह कहकर सनातन धर्म की मान्यताओं का भी हवाला दिया कि अस्थियों को गंगा में प्रवाहित करने से ही मोक्ष मिलता है लेकिन लोगों को शायद लगता था कि चिता जलने के बाद अस्थियों को छूने या विसर्जित करने से भी कोरोना हो जाएगा। वे लोग अस्थियां लेने नहीं लौटे। कोविड ने आदिकाल से चली आ रही इस संस्कृति को भी बदल दिया। गोस्वामी ने बताया कि इसी घाट पर रहते हुए उन्होंने देखा कि कई लोगों को चार कंधे भी नहीं मिल पाए। तमाम शव गाड़ियों में आए। उनके साथ आए एक-दो लोग जैसे-तैसे चिता बनाकर उन्हें जलाकर लौट गए।
जितेंद्र गोस्वामी कहते हैं कि इस दौर से पहले शवयात्रा देखकर जजमानी की आस बंधती थी लेकिन अब कोई भी शवयात्रा देखकर अच्छा नहीं लगता। उन्होंने कहा कि पिछले कुछ ही दिनों में रामगंगा घाट का रूप बदल गया है। अब जहां चारों तरफ अंतिम संस्कार की सामग्री फैली दिख रही है, वहां इन दिनों सिर्फ पूर्णमासी की पूजा और मुंडन संस्कार होते थे। लोग पुण्य कमाने के लिए स्नान करने आते थे। इस घाट को स्नान घाट बोला जाता था लेकिन अब यह स्नान घाट नहीं रहा। यहां पूर्णमासी की पूजा अब कौन करेगा, पिछले डेढ़ महीने से कोई मुंडन संस्कार भी नहीं हुआ है। अब तक भागवत शुरू हो जाती थी लेकिन अब ऐसे हालात हैं कि कोई यहां शुभ काम करने की सोच भी नहीं सकता। लोग यहां इतनी राख और गंदगी डाल रहे हैं कि नदी का पानी काला हो गया है।
करीब 12 साल के रोहित रामगंगा घाट के पास ही एक गांव में रहते हैं। कुछ समय पहले तक वह और उनके दोस्त रोज सुबह रामगंगा तट पर पहुंचकर सीधे नदी में उतर जाते थे। पूरा दिन मछलियां पकड़ने के साथ पुल के ऊपर से नदी में फेंके जाने वाले सिक्कों को लपकने में गुजर जाता था। रोहित और उनके दोस्त अब भी नदी के घाट पर पहुंचते हैं लेकिन अब नदी के अंदर उतरने की हिम्मत नहीं होती। कहते हैं, नदी में इतनी ज्यादा हड्डियां बिखरी पड़ी हैं जो अंदर जाते ही पैरों में चुभने लगती हैं। अक्सर लोग खुद चिता जलने के बाद घाट से ही नदी में अस्थियां डालकर चले जाते हैं और कई बार कुत्ते जली हुई चिताओं से हड्डियां खींचकर नदी में पहुंचा देते हैं। हड्डियां बिखरी होने की वजह से नदी के तट पर भी चलना मुश्किल है। रोहित कहते हैं कि हाल के दिनों में रामगंगा के घाट पर बहुत सारी चिताएं जली हैं। वह करीब दो साल से लगभग हर रोज रामगंगा घाट पर आ रहे हैं, उनके सामने पहले कभी ऐसा नहीं हुआ।
पंडित सुमित उपाध्याय कहते हैं कि धार्मिक मान्यताओं के अनुसार मृत व्यक्तियों की अस्थियों को गंगा में विसर्जित करनी चाहिए तभी मृत व्यक्ति की आत्मा को शांति मिलती है और उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। उन्होंने कहा कि यदि परिजन अस्थियां विसर्जित नहीं कर पाते तो जो भी और व्यक्ति अस्थियां विसर्जित करेगा, उसे पुण्य फल की प्राप्ति होगी और मृतक की आत्मा को मोक्ष मिल जाएगा।

फिजीशियन डॉ. अमन मौर्या कहते हैं कि किसी की कोविड से मौत होने पर शासन ने उसके अंतिम संस्कार के लिए गाइड लाइन बनाई है। इसमें शव को नहलाने, चूमने, गले लगाने और उसके नजदीक जाने की अनुमति नहीं है। शव दहन के बाद बची राख से कोई खतरा नहीं है।

पंडों के मुताबिक एक-एक दिन में रामगंगा घाट पर जलीं 70-70 चिताएं, पूरे घाट पर दिख रहे हैं चिताओं के निशान

बरेली। शहर के नजदीक से ही गुजरने वाली रामगंगा में कल-कल की आवाज तो जमाने से नहीं सुनी गई लेकिन इन दिनों यह नदी और खामोश हो गई है। सैकड़ों चिताओं की राख पड़ने के बाद उसकी धारा जगह-जगह ठहर गई है। सरकारी आंकड़े कुछ भी कहें, पंडों के मुताबिक अप्रैल के महीने में एक-एक दिन में 70-70 चिताएं जलने का हृदयविदारक नजारा उन्होंने देखा है। गंगातट पर बुझी चिताओं के निशान कुछ यूं चस्पा हो गए हैं कि दूर से ही गवाही देते हैं कि गुजरे दिनों में यहां क्या कुछ गुजरा है।

नदी के घाट पर रोज सुबह यजमानों की तलाश में पहुंचने वाले पंडे यह दृश्य बर्दाश्त करने की ताव अपने अंदर नहीं पैदा कर पा रहे हैं। गंगा घाट पर होने वाले शुभ काम तो बंद हो ही गए हैं, रामगंगा में फेंके जाने वाले पैसों को लपकने के लिए दिन भर पानी में रहने वाले आसपास के गांवों के बच्चों ने भी अब उसके तट से दूरी बना ली है। वजह यह है कि मानव शरीर की हड्डियां हर तरफ इस कदर बिखरी हुई हैं कि जिनके पैरों में चुभने से न तट पर चलना मुमकिन रह गया है न नदी के अंदर। घाट पर चारों तरफ फैली अंतिम संस्कार की सामग्री ने पूरा नजारा और वीभत्स बना दिया है।

रामगंगा घाट पर रहने वाले पंडों के चेहरों पर भी इन दिनों सन्नाटा खिंचा हुआ है। यहां अंतिम संस्कार कराने वाले पंडा जितेंद्र गोस्वामी बताते हैं कि वह यहां बीस साल से ज्यादा समय से जजमानी कर रहे हैं लेकिन उन्होंने अपने जीवन में कभी इतने अंतिम संस्कार होते नहीं देखे जितने हाल ही के कुछ दिनों में हुए हैं। जितेंद्र गोस्वामी घाट पर चिताओं के निशान दिखाते हुए कहते हैं कि उनके सामने रामगंगा घाट पर एक-एक दिन में 70 से भी ज्यादा अंतिम संस्कार हुए हैं। जिन लोगों की मौत कोविड से हुई थी, उनके परिवार के लोग अंतिम संस्कार करके चले गए लेकिन अस्थियां लेने नहीं लौटे। 95 फीसदी से ज्यादा मामलों में ऐसा ही हुआ। इसी वजह से पूरे घाट पर अस्थियां बिखरी हुई हैं।जितेंद्र गोस्वामी बताते हैं कि उन्होंने कई लोगों को यह कहकर सनातन धर्म की मान्यताओं का भी हवाला दिया कि अस्थियों को गंगा में प्रवाहित करने से ही मोक्ष मिलता है लेकिन लोगों को शायद लगता था कि चिता जलने के बाद अस्थियों को छूने या विसर्जित करने से भी कोरोना हो जाएगा। वे लोग अस्थियां लेने नहीं लौटे। कोविड ने आदिकाल से चली आ रही इस संस्कृति को भी बदल दिया। गोस्वामी ने बताया कि इसी घाट पर रहते हुए उन्होंने देखा कि कई लोगों को चार कंधे भी नहीं मिल पाए। तमाम शव गाड़ियों में आए। उनके साथ आए एक-दो लोग जैसे-तैसे चिता बनाकर उन्हें जलाकर लौट गए।

जितेंद्र गोस्वामी कहते हैं कि इस दौर से पहले शवयात्रा देखकर जजमानी की आस बंधती थी लेकिन अब कोई भी शवयात्रा देखकर अच्छा नहीं लगता। उन्होंने कहा कि पिछले कुछ ही दिनों में रामगंगा घाट का रूप बदल गया है। अब जहां चारों तरफ अंतिम संस्कार की सामग्री फैली दिख रही है, वहां इन दिनों सिर्फ पूर्णमासी की पूजा और मुंडन संस्कार होते थे। लोग पुण्य कमाने के लिए स्नान करने आते थे। इस घाट को स्नान घाट बोला जाता था लेकिन अब यह स्नान घाट नहीं रहा। यहां पूर्णमासी की पूजा अब कौन करेगा, पिछले डेढ़ महीने से कोई मुंडन संस्कार भी नहीं हुआ है। अब तक भागवत शुरू हो जाती थी लेकिन अब ऐसे हालात हैं कि कोई यहां शुभ काम करने की सोच भी नहीं सकता। लोग यहां इतनी राख और गंदगी डाल रहे हैं कि नदी का पानी काला हो गया है।

करीब 12 साल के रोहित रामगंगा घाट के पास ही एक गांव में रहते हैं। कुछ समय पहले तक वह और उनके दोस्त रोज सुबह रामगंगा तट पर पहुंचकर सीधे नदी में उतर जाते थे। पूरा दिन मछलियां पकड़ने के साथ पुल के ऊपर से नदी में फेंके जाने वाले सिक्कों को लपकने में गुजर जाता था। रोहित और उनके दोस्त अब भी नदी के घाट पर पहुंचते हैं लेकिन अब नदी के अंदर उतरने की हिम्मत नहीं होती। कहते हैं, नदी में इतनी ज्यादा हड्डियां बिखरी पड़ी हैं जो अंदर जाते ही पैरों में चुभने लगती हैं। अक्सर लोग खुद चिता जलने के बाद घाट से ही नदी में अस्थियां डालकर चले जाते हैं और कई बार कुत्ते जली हुई चिताओं से हड्डियां खींचकर नदी में पहुंचा देते हैं। हड्डियां बिखरी होने की वजह से नदी के तट पर भी चलना मुश्किल है। रोहित कहते हैं कि हाल के दिनों में रामगंगा के घाट पर बहुत सारी चिताएं जली हैं। वह करीब दो साल से लगभग हर रोज रामगंगा घाट पर आ रहे हैं, उनके सामने पहले कभी ऐसा नहीं हुआ।

पंडित सुमित उपाध्याय कहते हैं कि धार्मिक मान्यताओं के अनुसार मृत व्यक्तियों की अस्थियों को गंगा में विसर्जित करनी चाहिए तभी मृत व्यक्ति की आत्मा को शांति मिलती है और उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। उन्होंने कहा कि यदि परिजन अस्थियां विसर्जित नहीं कर पाते तो जो भी और व्यक्ति अस्थियां विसर्जित करेगा, उसे पुण्य फल की प्राप्ति होगी और मृतक की आत्मा को मोक्ष मिल जाएगा।

फिजीशियन डॉ. अमन मौर्या कहते हैं कि किसी की कोविड से मौत होने पर शासन ने उसके अंतिम संस्कार के लिए गाइड लाइन बनाई है। इसमें शव को नहलाने, चूमने, गले लगाने और उसके नजदीक जाने की अनुमति नहीं है। शव दहन के बाद बची राख से कोई खतरा नहीं है।

रामगंगा नदी के किनारे शव जलाकर छोड़ जाने और अवशेष नदी में फैले होने के मामले में जानकारी ली जाएगी। यदि वहां इस तरह की स्थिति है तो नदी की सफाई भी कराई जाएगी। – वीके सिंह, एडीएम प्रशासनतमाम को कंधा भी नहीं मिला, गाड़ियों में लाए शव और घाट पर जलाकर चले गए