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अभी नहीं चेते तो यूपी-बिहार भी पंजाब-हरियाणा की तरह पानी को तरसेंगे!

आईआईटी कानपुर की ताजा रिसर्च में यूपी-बिहार के लिए भूजल संकट की चेतावनीIIT कानपुर ने पश्चिमोत्तर भारत के 4000 कुओं के अध्ययन के बाद जारी की रिपोर्टसर्वे में पाया गया कि बुंदेलखंड में भूजल की गिरावट खतरनाक स्तर पर पहुंच गई हैकानपुर
आईआईटी कानपुर की ताजा रिसर्च ने ग्राउंड वॉटर (भूजल) के मामले में पंजाब-हरियाणा के बाद उत्तर प्रदेश और बिहार के लिए भी खतरे की घंटी बजा दी है। पश्चिमोत्तर भारत के 4000 कुओं के अध्ययन के बाद बताया गया है कि 1974 में भूजल का स्तर 2 मीटर गिरा था, जो 2010 आते-आते 30 मीटर तक पहुंच गया। अर्थ सांइसेस विभाग के प्रफेसर राजीव सिन्हा के अनुसार, बीते 4-5 दशकों में हरियाणा-पंजाब में धान के रकबे में रेकॉर्ड इजाफा हुआ है। जल्द ध्यान नहीं दिया गया तो यूपी और बिहार में भी ऐसे ही हालात होंगे। सर्वे में पाया गया कि बुंदेलखंड में भूजल की गिरावट खतरनाक स्तर पर पहुंच गई है।

अर्थ सांइसेस विभाग के प्रफेसर राजीव सिन्हा और उनके पीएचडी छात्र डॉ सुनील कुमार जोशी के साझा अध्ययन में बताया गया है कि हरियाणा में 1966-67 में 1 लाख 92 हजार हेक्टेयर में धान की बुआई होती थी। 2017-18 में यह बढ़कर 14 लाख 22 हजार हेक्टेयर तक पहुंच गई। ज्यादा पानी की मांग वाली धान का रकबा पंजाब में 1960-61 में सिर्फ 2 लाख 27 हजार हेक्टेयर था, जो 2017-18 में 30 लाख 64 हजार हेक्टेयर तक पहुंच गया।

अनियंत्रित मांग का असर यह हुआ कि बाकी क्षेत्रों के उलट घग्गर-हाकरा पेलिओचैनल (कुरुक्षेत्र-पटियाला और फतेहाबाद जिले) में सबसे ज्यादा भूजल में रेकॉर्ड गिरावट आई। पानीपत और करनाल के कुछ हिस्सों में ऐसी गिरावट दर्ज हुई। इस मांग की वजह हरित क्रांति थी। प्रफेसर सिन्हा के मुताबिक, रिसर्च पेपर में भूजल के स्तर का हाई-रेजॉल्यूशन डेटा दिया गया है।

साथ ही सूख चुकी नदियों और जलधाराओं के बारे में भी बताया गया है। भारत हर साल 245 घन किमी भूजल का दोहन करता है। इसमें 90 प्रतिशत पानी का इस्तेमाल सिंचाई के लिए होता है और इसके अलावा औद्योगिक क्षेत्र में अनियंत्रित इस्तेमाल भी प्रमुख कारण है। बुंदेलखंड के अलावा गंगा के मैदानी क्षेत्रों में भूजल का जमकर दोहन हो रहा है।

समाधान का तरीका गलत
बकौल प्रफेसर सिन्हा, कृषि और औद्योगिक काम में पानी का इस्तेमाल तो बढ़ा, लेकिन बारिश घट गई। पानी के दोहन से असंतुलन बढ़ा तो रेन वॉटर हार्वेस्टिंग का तरीका अपनाया गया। लेकिन इसके लिए पूरी तरह वैज्ञानिक तरीके अपनाने होंगे। मसलन, हर जमीन बारिश के पानी को जमीन में पहुंचाने के लिए उपयुक्त नहीं है। किसी जमीन (सब-सरफेस) में 10 मीटर की गहराई पर चिकनी मिट्टी है तो वहां रीचार्ज की जगह पानी इकट्ठा होकर आसपास की जमीन में उगने वाली फसल और बाकी चीजें गड़बड़ा देगा।

सूखी नदियों का इस्तेमाल करें
सेंट्रल ग्राउंड वॉटर बोर्ड के पास पूरे देश की मिट्टी के बारे में भरपूर डेटा उपलब्ध है। इसका वैज्ञानिक विश्लेषण कर रीचार्ज के लिए उपयुक्त जगहों का चयन किया जाए। दीर्घकालीन समाधान के लिए यह तरीका वरदान साबित हो सकता है। इसी तरह सूखी नदियों और जलधाराओं पर फोकस करने की भी आवश्यकता है। किसी नदी में पानी ज्यादा हो रहा है तो इंट्रा-बेसिन चैनल के जरिए पानी सूखी नदी में पहुंचाया जाए।

नदियों में बाढ़ आने की स्थिति में इन सूखी जलधाराओं का इस्तेमाल कर सकते हैं। इससे बाढ़ से होने वाला नुकसान घटेगा और भूजल स्तर को बनाए रखने में मदद मिलेगी। जमीन के ऊपर और अंदर मौजूद जलस्रोत आपस में जुड़े हैं। बिहार में हर साल कोसी में बाढ़ आती है, लेकिन इसकी 100 धाराएं सूखी हैं। इन्हें पुनर्जीवित करना होगा। उत्तर प्रदेश में भी इस पहलू पर कोई काम नहीं हुआ है। इस पर गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है।

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