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देवरिया जिले के भाटपार रानी विधानसभा सीट, राम लहर और मोदी लहर में भी नहीं जीत सकी BJP

देवरिया जिले की भाटपार रानी विधानसभा सीट पर बीजेपी अब तक अपना झंडा नहीं फहरा पाई। राम लहर और मोदी लहर में भी बीजेपी उम्मीदवार इस सीट पर नहीं जीत सके। अब तक के चुनावों पर गौर करें तो यह सीट ज्यादातर समाजवादियों के ही कब्जे में रही, जबकि पिछले 4 दशकों से इस सीट पर 2 परिवारों का ही दबदबा रहा है। बीजेपी अब तक इस क्षेत्र में अपना मजबूत कैडर ही नहीं खड़ा कर पाई। आगामी चुनाव के लिए भी बीजेपी को अभी तक कोई ऐसा नामचीन चेहरा नहीं मिला है, जो यहां से पार्टी का खाता खोल सके।

बिहार बॉर्डर से लगे भाटपार रानी विधानसभा क्षेत्र के मतदाताओं का मिजाज कुछ अलग ही है। यहां के मतदाताओं ने सत्तारूढ़ पार्टी और लहर को भी खास महत्व नहीं दिया। इसी का नतीजा है कि इंदिरा हत्याकांड से उपजी सहानुभूति के बाद भी 1985 के विधानसभा चुनाव में निर्दलीय कामेश्वर उपाध्याय ने कांग्रेस उम्मीदवार को करारी शिकस्त दी थी, जबकि 1991 के राम लहर और बीते 2017 की मोदी लहर में भी बीजेपी उम्मीदवार यहां एसपी से चुनाव हार गई। आजादी के बाद से अब तक इस सीट पर 18 बार हुए विधानसभा चुनावों के नतीजे देखें तो 4 बार पूर्व सांसद हरिवंश सहाय और 7 बार से पूर्व मंत्री कामेश्वर उपाध्याय एवं उनके परिजनों का कब्जा है।

सन् 1952 में पहली बार यहां से स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सच्चिदानंद त्रिपाठी ने कांग्रेस से जीत दर्ज की थी। 1957 में कांग्रेस के ही अयोध्या प्रसाद आर्य एमएलए बने। साल 1962 के चुनाव में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से कैलाश कुशवाहा और 1967 में अयोध्या प्रसाद आर्य ने कांग्रेस से जीत दर्ज की। 1969 के चुनाव में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से हरिवंश सहाय, 1974 में कांग्रेस से रघुराज प्रताप सिंह और 1977 में जनता पार्टी के राज मंगल तिवारी विधायक हुए। 1980 में लोकदल के टिकट पर फिर हरिवंश सहाय जीत गए।

1985 के चुनाव में कांग्रेस को हराकर निर्दल विधायक बने थे कामेश्वर उपाध्याय
साल 1985 के चुनाव में कांग्रेसी उम्मीदवार को हराकर कामेश्वर उपाध्याय निर्दल विधायक बने थे। 1989 के चुनाव में उपाध्याय जनता दल के हरिवंश सहाय से चुनाव हार गए। 1991 के राम लहर में भी हरिवंश सहाय ने बतौर एसपी उम्मीदवार अपना वर्चस्व कायम रखा। 1993 के चुनाव में कांग्रेस से उम्मीदवार बने कामेश्वर उपाध्याय ने हरिवंश सहाय को हराकर अपना हिसाब पूरा कर लिया। 1996 में एसपी उम्मीदवार योगेंद्र सिंह सेंगर ने उपाध्याय को पटखनी दे दी।

2002 से अब तक उपाध्याय परिवार के पास ही है सीट
2002 के चुनाव में उपाध्याय ने बिना लहर के कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में जीत दर्ज की। उसके बाद उपाध्याय एसपी में चले गए और 2007 और 2012 के चुनाव में अपना दबदबा बनाए रखा और मंत्री भी बने। साल 2013 में मंत्री के रूप में उन्होंने अंतिम सांस ली और उनके निधन से हुए उपचुनाव में उनके बेटे आशुतोष उपाध्याय ने एसपी से जीत दर्ज की। साल 2017 के चुनाव में मोदी लहर के बावजूद एसपी के आशुतोष उपाध्याय ने पूर्व सांसद स्व. हरिकेवल प्रसाद के बेटे एवं बीजेपी सांसद रविंद्र कुशवाहा के छोटे भाई जयनाथ कुशवाहा को लगभग 15 हजार वोटों से पराजित किया।

बीजेपी की साख पर हर बार लगा बट्टा
पूर्व विधायक एवं राजनीतिक जानकार वीरेंद्र चतुर्वेदी की मानें तो इस सीट पर बीजेपी की साख को हर बार बट्टा लगा है। इस विधानसभा क्षेत्र में बीजेपी अभी तक अपना मजबूत कैडर नहीं खड़ा कर पाई। आगामी चुनाव के लिए भी इस क्षेत्र में बीजेपी के पास कोई चमत्कारी उम्मीदवार नहीं दिख रहा है। इसी कमजोरी का नतीजा है कि बीजेपी हर बार यह सीट अपने सहयोगी दलों को समझौते में देती रही है। 2012 के चुनावों से बीजेपी जोर-शोर से अपना उम्मीदवार यहां उतार रही है। पार्टी का दावा है कि भाटपार रानी में संगठन ने इस बार काफी तैयारी की है। अब देखना है कि आगामी चुनाव में बीजेपी का यहां से खाता खुलता है या यह सीट फिर समाजवादियों के कब्जे में बनी रहती है।