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यूं ही दिल्ली छोड़ यूपी में नहीं रह गए अखिलेश यादव, विधानसभा चुनाव परिणामों को पढ़कर लिया है यह बड़ा फैसला

लखनऊ:समाजवादी पार्टी प्रमुख (SP Chief) अखिलेश यादव ने लोकसभा सदस्यता छोड़ दी है। वो उत्तर प्रदेश की करहल विधानसभा सीट से विधायक हैं। स्वाभाविक है कि उत्तर प्रदेश विधासभा में वही विपक्ष के नेता बनेंगे। अब तक अटकलें लग रही थीं कि यूपी के मुख्यमंत्री की कुर्सी से योगी आदित्यनाथ को उतारकर खुद बैठने में असफल रहे अखिलेश विधायकी भी छोड़ देंगे और सांसद ही बने रहेंगे। हालांकि, आज उन्होंने लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला को अपना इस्तीफा सौंपकर अटकलों पर विराम लगा दिया। वो आजमगढ़ से सांसद थे। अब यह कहा जाने लगा है कि अखिलेश ने सांसदी पर विधायकी को तवज्जो देकर बड़ी रणनीति की तरफ इशारा कर दिया है। आखिर क्या है वो रणनीति? अखिलेश ने अपेक्षाकृत कमजोर ओहदे को क्यों चुना? आइए इन सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करते हैं…

दिल्ली पर यूपी भारी, लेकिन क्यों
ऊपर के सवालों के जवाब ढूंढने से पहले यह जिक्र भी कर दें कि रामपुर से सांसद और सपा के कद्दावर नेताओं में शुमार आजम खान ने भी संसद सदस्यता से इस्तीफा दे दिया है। संभव है कि उनके परिवार का कोई सदस्य अब इस सीट से किस्मत आजमाए और संसद पहुंच जाए। खैर, आते हैं अखिलेश के सांसदी छोड़ने के सवाल पर। स्वाभाविक है कि अखिलेश आबादी के लिहाज से देश के सबसे बड़े राज्य के पांच साल तक मुख्यमंत्री रहे हैं। उनका पूरा खानदान राजनीति में है और पिता मुलायम सिंह यादव तो देश के राजनीतिक महारथियों में शुमार किए जाते हैं। इतने सियासी अनुभवों को समेटे अखिलेश ने यूं ही तो सांसदी छोड़कर विधायकी नहीं अपना ली। उन्हें हालिया विधानसभा चुनाव परिणाम से समझ आ चुका है कि पार्टी के हित में उनका यूपी में रहना जरूरी है बनिस्बत दिल्ली में रहने के।

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विधानसभा चुनाव परिणाम को अच्छे से पढ़ गए अखिलेश
इस बार के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी 111 सीटों तक सिमट गई, वो भी तब जब उसका राष्ट्रीय लोकदल (RLD) से गठबंधन था जिसके खाते में सिर्फ आठ सीटें आई हैं। इतना ही नहीं, अखिलेश चुनाव से ठीक पहले योगी सरकार के तीन कैबिनेट मंत्रियों- ओम प्रकाश राजभर, दारा सिंह चौहान और स्वामी प्रसाद मौर्य को तोड़कर सपा के पक्ष में जबर्दस्त माहौल बनाने में कामयाब रहे थे। बावजूद इसके इनमें सबसे बड़बोले स्वामी प्रसाद मौर्य अपना ही चुनाव नहीं जीत सके। अखिलेश ने आरएलडी के जयंत चौधरी का साथ लिया और कुलांचे भरने लगे कि किसान आंदोलन के कारण बीजेपी से नाराज जाट समुदाय के मतदाताओं के बड़े हिस्से को अपनी तरफ कर लेंगे। हालांकि, ऐसा हुआ नहीं और जाट बेल्ट माने जाने वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 126 विधानसभा सीटों में बीजेपी को 67% यानी 85 सीटें मिल गईं। हैरानी की बात तो यह है कि जिस लखीमपुर खीरी में किसानों के एक दल को केंद्रीय मंत्री और बीजेपी नेता अजय मिश्रा टेनी के पुत्र आशीष मिश्रा के इशारे पर गाड़ियों से रौंदने का आरोप लगा, वहां की सभी आठ सीटें बीजेपी की झोली में गिर गईं। अखिलेश इन संकेतों को अच्छे से समझ चुके हैं।

सीटें बढ़ीं, वोट प्रतिशत भी बढ़ा, फिर किस बात की टेंशन?
अखिलेश की राजनीतिक समझ के स्तर का अंदाजा इस एक तथ्य से लगाया जा सकता है कि 2012 के पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले इस बार सपा को 100% से ज्यादा सीटों का फायदा हुआ और उसे 10 प्रतिशत वोट भी ज्यादा मिले, फिर भी उन्होंने बेपरवाही नहीं दिखाई। वो यह सोचकर दिल्ली में बने रहने का विकल्प नहीं चुना कि यूपी में उनकी पार्टी मजबूत ही हुई है और कमजोर हुई है तो बीजेपी। इसका जिक्र इसलिए करना जरूरी है कि व्यक्ति हो या पार्टी, लोकप्रियता बढ़ने पर ज्यादातार बार लापरवाही और आलस्य के आलम में फंसने की आशंका भी बढ़ जाती है। लेकिन व्यक्ति के तौर पर अखिलेश ने अपनी पार्टी को इस संभावित खतरे से दूर रखने की ठानी और लोकसभा की सदस्यता छोड़ दी। अब वो यूपी विधानसभा में रहकर योगी सरकार की नीतियों पर कड़ी नजर रख पाएंगे और हर उस मौके को अपनी पार्टी के हित में भुनाएंगे जहां योगी सरकार थोड़ी सी भी कमजोर दिखेगी।

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पांच साल तक कार्यकर्ताओं को साथ रखने की चुनौती
दरअसल, सपा प्रमुख के सामने अपने कार्यकर्ताओं को अगले पांच साल तक संगठित रखने की बड़ी चुनौती होगी। इसी चुनौती के भांपते हुए अखिलेश ने यूपी में रहने का फैसला किया ताकि कार्यकर्ताओं के बीच यह संदेश जाए कि भले ही सपा सत्ता में नहीं आ पाई, लेकिन पार्टी का जोश-जज्बा कम नहीं हुआ है और वो पांच साल तक विधानसभा से लेकर सड़कों तक लड़ाई छेड़कर 2017 विधानसभा चुनाव में और मजबूती से उतरेगी। चुनाव परिणाम आते ही राजनीतिक पंडितों ने यह अनुमान लगाना शुरू कर दिया था कि अखिलेश के कार्यकर्ता अगले पांच वर्ष में हताश हो जाएंगे और वो धीरे-धीरे सपा से दूर होते चले जाएंगे क्योंकि कोई भी पार्टी कार्यकर्ताओं को वेतन नहीं देती, बल्कि सत्ता में आने पर उन्हें अलग-अलग तरीकों से फायदा पहुंचाया जाता है। 10 साल तक सत्ता से दूर रहने के बाद जमीनी कार्यकर्ताओं का पार्टी से मोहभंग हो जाए तो बहुत बड़ी बात नहीं होगी, खासकर तब जब पिछले कई दशकों से रह-रहकर वो सत्ता का स्वाद चखते रहे हों।

…ताकि बीजेपी में न चले जाएं बसपा के वोटर
अखिलेश यादव यह भी जानते हैं कि इस चुनाव में पूर्व मुख्यमंत्री मायावती की बहुजन समाज पार्टी (BSP) के मतदाताओं के बड़े हिस्से ने पार्टी से दूरी बना ली। इसका सबसे बड़ा फायदा सपा को ही हुआ। अखिलेश को पता है कि बसपा और कमजोर हुई तो उसके वोटरों के पाला बदलने का सिलसिला और तेज होगा और ऐसे वक्त में सपा शिथिल रही तो बीजेपी को बड़ा फायदा हो सकता है। अखिलेश मौके पर चौका मारने में बिल्कुल पीछे रहना नहीं चाहते, इसलिए उन्होंने फैसला किया कि अब यूपी में ही अड्डा जमाया जाए ताकि बसपा से छिटक रहे मतदाताओं में यह साफ संदेश जाए कि सपा में बीजेपी से मुकाबला करने का माद्दा दिन-ब-दिन बढ़ रहा है या बढ़ने वाला है, इसलिए उनका नया ठिकाना सपा ही बने, ना कि वो इधर से भी मायूस होकर बीजेपी की शरण में चले जाएं।

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क्या रंग लाएगा अखिलेश का फैसला, रहेगी नजर
खैर, ये सारे तो अनुमान हैं, असल में अखिलेश ही जानते होंगे कि संसद सदस्यता छोड़ने से पहले उन्होंने किन-किन मुद्दों पर विचार किया और फिर क्यों इस फैसले पर पहुंचे। लेकिन, यह फिर से कहा जा सकता है कि उनका यह फैसला उनकी समाजवादी पार्टी और उनके कार्यकर्ताओं में जोश भरने के लिहाज से काफी क्रांतिकारी है। अखिलेश के यूपी में रहने का असर अगले पांच वर्षों तक दिखेगा, कैसे और कितना, इस पर सबकी नजरें टिकीं होगीं- बीजेपी और प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की भी।