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पीएफआई पर प्रतिबंध से कट्टरवादी सोच पर अंकुश

कथित रूप से आतंकी गतिविधियों में संलिप्तता एवं आईएसआईएस जैसे भारत विरोधी आतंकवादी संगठनों से निकट संबंधों के चलते पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआइ) और उसके आठ सहयोगी संगठनों पर केन्द्र सरकार ने पांच साल के लिए प्रतिबंध लगा दिया गया है। राष्ट्रीय एकता एवं आपसी सौहार्द-सद्भावना को क्षत-विक्षत करने वाले इन संगठनों पर यह कार्रवाई बहुत पहले हो जानी चाहिए थी, लेकिन देर आये दुरस्त आये, अब भी यह कार्रवाई होना एक सराहनीय कदम है। केंद्र सरकार ने यह कदम एनआइए की प्रारंभिक जांच के बाद उठाया है। प्रतिबंध से पहले एनआइए ने देश भर में इस संगठन के दफ्तरों पर छापे मारे। उसके दफ्तरों को सील कर दिया गया है। इनके कार्यालय से हथियार, विदेशी मुद्रा, मानव शूटिंग टारगेट के पुतले, बम, महंगा कच्चा माल, गन पाउडर और तलवारें मिलीं। इन संगठनों पर आतंकी संगठनों से संबंध रखने, हथियार रखने व इन्हें चलाने का प्रशिक्षण देने, अपहरण, हत्या, हेट कैम्पेन चलाने, दंगे भड़काने समेत कई गंभीर आरोप लगे। इन पर आतंकी कनेक्शन और देश विरोधी गतिविधियां चलाने के आरोप हैं। सरकार ने माना है कि इन संगठनों की गतिविधियां देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा हैं। जांच में इन संगठनों के भी आतंकी कनेक्शन मिले हैं। ये संगठन भारत विरोधी हैं और इनका भारत में प्रतिबंधित होना जरूरी है।
भारत के विखण्डन की भावना से वर्ष 2006 में बना यह संगठन इस समय देश के 23 राज्यों में सक्रिय है। लगातार इसका प्रभाव बढ़ रहा था। पीएफआइ जैसे संगठनों के बैनर तले लोग कट्टरवाद के खिलाफ बोलने वालों को भी लगातार निशाना बना रहे हैं, शांति-व्यवस्था भंग कर रहे थे एवं भारत में पाकिस्तानी के इरादों को अंजाम दे रहे थे। इस संगठन की संदिग्ध गतिविधियों के चलते पूरे देश में छापे मारे गए। इनमें करीब 278 लोगों की गिरफ्तारी भी हुई। दरअसल, यह कार्रवाई ऐसे वक्त हुई है, जब पूरी दुनिया में कट्टरवाद को लेकर बहस छिड़ी हुई है। अमरीका से लेकर यूरोपीय देशों में भी इस्लामी कट्टरवाद मुद्दा बना हुआ है और ऐसे संगठनों को पूरी दुनिया के लिए खतरा माना जा रहा है। इन बड़े खतरों से सुरक्षा करना भारत सरकार की प्राथमिकता होना ही चाहिए। उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार अब देश की सुरक्षा को खतरे में डालने वाले हर संगठन के खिलाफ पूरी ताकत से खड़ी होगी। प्रतिबंध के साथ ही सरकार को ऐसे संगठनों की जड़ को तलाश कर उस पर प्रहार करना होगा। साथ ही इन संगठनों की विदेशी फंडिंग के तमाम रास्तों को भी बंद करना होगा। ऐसा होने पर आतंक के पर्याय बन रहे संगठनों और उनसे जुड़े लोगों की कमर टूट जाएगी और इस कार्रवाई से देश में शांति एवं अमन का वातावरण बन सकेगा। घृणा, नफरत एवं खून की इस विरासत को खंडित करना राष्ट्रीय एकता के लिये नितान्त अपेक्षित हो गया था।
भारत के लोकतन्त्र में हिंसा के बूते पर धार्मिक उग्रवाद फैला कर किसी विशेष सम्प्रदाय को राष्ट्र विरोधी गतिविधियों व आतंकवाद की तरफ धकेलने वाले इस संगठन के वजूद को केवल अहिंसा एवं सौहार्द को ही साध्य मानने वाले इस राष्ट्र में सहन नहीं किया जा सकता। वसुधैव कुटुम्बकम की भावना को बल देने वाले इस देश में कट्टरवाद एवं उन्मादी सोच को कैसे पनपने दिया जा सकता है? इस पीएफआइ के कार्यकर्ताओं ने अनेक खूनी खेल खेले हैं। केरल हाई कोर्ट को वर्ष 2012 में केरल की सरकार ने हलफनामे के साथ बताया था कि वह अब तक 27 हत्याओं में संलिप्त हैं जिनमें मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं की हत्या भी शामिल है। केरल सरकार ने 2014 में भी एक हलफनामे के साथ दोहराया कि 27 हत्याओं के अतिरिक्त पीएफआइ व इसके साथी संगठन के लोग हत्या के प्रयास के 86 मुकदमों और दंगों/साम्प्रदायिक तनाव की 106 घटनाओं के लिए भी दोषी हैं। वर्ष 2003 में केरल के कोच्चि में मराड नामक जगह पर दंगे हुए, जिनमें एक ही समुदाय के 8 लोग मारे गए थे। देश के अन्य भागों में भी ऐसी ही आतंकवादी, उन्मादी एवं हिंसक घटनाओं को अंजाम देने वाला यह संगठन हर दिन किसी बड़ी आतंकी घटना के लिये तत्पर रहता आया है। मुस्लिम समुदाय की सहानुभूति जुटाने एवं उनके हितों की बात करने वाला यह संगठन उन्हीं लोगों के लिये कितना खतरनाक साबित हुआ है, यह बात मुस्लिम समुदाय को समझने की जरूरत है। भारत में मुस्लिम समाज अपनी मूलभूत समस्याओं को लेकर सबसे अधिक परेशान है। शिक्षा, रोजगार और शांति इस समुदाय की प्राथमिकताओं में है। अपराध और नशे से मुक्ति, महिला अधिकारों की सुरक्षा, बच्चों को बेहतर तालीम और बेहतर जीवनस्तर भारत के मुसलमानों की घोर आवश्यकता है। पर नशा सिर्फ रसायनों और तम्बाकू से ही नहीं होता। विचार का भी एक नशा होता है जो पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया ने भारत के मुस्लिम युवाओं को पिलाने की कोशिश की। जिसने हाथ में बम उठा लिया हो, वह कोई तर्क नहीं सुनेगा। हर कोई मुस्लिम कट्टर हो गया। सभी कुछ बंट रहा है, टूट रहा है। बंटने और टूटने की जो प्रतिक्रिया हो रही है, उसने राष्ट्र को हिला दिया है। लेकिन भारत के सांस्कृतिक परिवेश में पीएफआइ जैसे संगठन सफल तो नहीं हो पाएंगे, अलबत्ता पहले से परेशान मुस्लिम समुदाय को और परेशान जरूर करेंगेे। जिन करोड़ों लोगों को अशिक्षा, भुखमरी, नशा और अमानवीयता से लड़ना है, उन्हें अपनी प्राथमिकताएं तय करने के लिए अगर पीएफआइ की तरफ देखना पड़े, तो यह निश्चित ही समाज की वैचारिक हार है।
पीएफआई जिस तरह से भारत की आजादी की 100वीं वर्षगांठ तक भारत को इस्लामी देश बनाने के मनसूबे को संजों कर चलना चाहती थी, उससे पंथनिरपेक्ष भारत किसी भी तौर पर नजरें नहीं फेर सकता था क्योंकि भारत में सीरिया के ख्वाब देखने वालों की करतूतें इस मुल्क की जांच एजेंसियों की नजरों में आ चुकी थीं। ‘गजवा-ए- हिन्द’ का अगर एक भी पैरोकार आज के भारत में आजाद और खुला घूमता है तो वह पूरे मुल्क की लोकतान्त्रिक व्यवस्था के लिए चुनौती की तरह ही देखा जायेगा क्योंकि उसका केवल दिलो-दिमाग ही नहीं बल्कि पूरा जिस्म मजहब की बुनियाद पर इंसानियत के कत्ल की पैरवी करता है। भारत यह नजारा 1947 में देख चुका है जब एक पंजाबी ने दूसरे पंजाबी का कत्ल किया था और बंगाली ने दूसरे बंगाली को मारा था। वह मुहम्मद अली जिन्ना द्वारा बोया हुआ बीज था जिसकी फसल उस वक्त मुस्लिम लीग के गुनहगार कारिन्दों ने काटी थी और पाकिस्तान बनाया था।
भारत की आजादी के 75 साल बाद भी अगर उसी जिन्ना की जहरीले ख्वाबों को हवा देने का काम पीएफआई जैसे कट्टरवादी संगठन करते हैं और मजहब के आधार पर भारतीयों को हिन्दू-मुसलमान में बांट कर इंसानियत को आहत करते हैं तो जितनी तरक्की भारत ने पिछले 75 सालों में की है उस पर गर्द डालने की साजिश को रोकने के लिए कारगर कदम उठाने की शक्ति एवं अधिकार सरकार को इस देश का संविधान ही देता है। इसलिए गृहमन्त्री अमित शाह ने जो फैसला पीएफआई पर प्रतिबन्ध लगाने का किया है उसका समर्थन आगे बढ़ कर सबसे पहले देश की मुस्लिम युवा पीढ़ी को ही करना चाहिए क्योंकि यह मुस्लिम युवा पीढ़ी को मजहब के नाम पर संगठित करके उन्हें आतंकवादी बनाने का काम  पीएफआई करती थी।
विडम्बना देखिये कि सरकार की इस कार्रवाई पर राजनीतिक बयानबाजी भी शुरू हो गई है। ऐसे मामलों में राजनीति ठीक नहीं है, राजनीतिक स्वार्थ की रोटियां सेंकना एवं वोट की राजनीति करना उचित नहीं है। इस वक्त सबसे जरूरी बात यह है कि सरकार देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा बन रहे संगठनों और लोगों पर सख्ती दिखाए। बड़ी चुनौती यह भी है कि जिन संगठनों पर प्रतिबंध लगाया गया है, वे किसी नए संगठन से न जुड़ जाएं। पिछला अनुभव भी ऐसा ही है। ऐसे संगठन प्रतिबंध के बाद नई शक्ल लेकर वापस आते रहे हैं। पीएफआइ का उदाहरण सबके सामने है, जो सिमी पर प्रतिबंध के बाद जन्मा। सिमी के तमाम लोग प्रतिबंध के बाद पीएफआइ संगठन के नाम से फिर देश विरोधी गतिविधियों में सक्रिय हो गए। ऐसे में सरकार को प्रतिबंध के बाद अब इनकी गतिविधियों पर भी पूरी नजर रखने की व्यवस्था करनी होगी। आसान था। बैन होने के बाद बहुत संभव है कि इनसे जुड़े कुछ तत्व गोपनीय रूप से राष्ट्रविरोधी या आतंकी गतिविधियों को अंजाम देने की कोशिश करें। वैसे भी अनुभव बताता है कि बैन करने मात्र से किसी संगठन का प्रभाव हमेशा के लिए खत्म नहीं हो जाता। जाहिर है, सरकार को आगे और ज्यादा सतर्कता से कदम बढ़ाने होंगे।