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‘मिशन पसमांदा’ के जरिए मुस्लिमों को अपना बनाएगी BJP, यूपी निकाय चुनाव में कमल खिलाने का प्लान समझिए

लखनऊ: अक्टूबर के पिछले महीने में उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में पसमांदा मुस्लिम सम्मेलन का आयोजन हुआ था। चीफ गेस्ट बनकर पहुंचे उपमुख्यमंत्री बृजेश पाठक ने मादरे वतन हिंदुस्तान जिंदाबाद के नारे के साथ भाषण की शुरुआत की। उन्होंने विपक्षी दलों पर निशाना साधते हुए कहा कि मुसलमानों का हाल तेजपत्ते के जैसा कर दिया गया है। बिरयानी खा लिया और स्वाद आने के बाद तेजपत्ते को फेंक दिया। इसके दो दिन बाद ही डेप्युटी सीएम केशव प्रसाद मौर्य का बयान आया, जिसमें उन्होंने कहा कि मुस्लिम समाज ने सब पर भरोसा करके देख लिया है, अब एक बार भाजपा पर भी यकीन करके देखे। बात कुछ महीने पहले तक भी जाती है, जब पीएम नरेंद्र मोदी ने बीजेपी कार्यकारिणी की बैठक में पसमांदा मुसलमानों का जिक्र कर उन तक पार्टी का जनाधार बढ़ाने की बात कही थी।

बीजेपी की नजर 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों पर है। बीजेपी ने इसी साल संपन्न हुए उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भी पसमांदा समाज को लेकर अपनी रणनीति को अपनाने की कोशिश भी की। अभी लोकसभा चुनावों के सेमीफाइनल के तौर पर देखे जा रहे स्थानीय निकाय के चुनावों में बीजेपी मिशन पसमांदा लेकर उतरने की तैयारी में है। पसमांदा मुसलमान लाभार्थियों की एक विशेष श्रेणी है। वे सामाजिक रूप से पिछड़े, सांस्कृतिक रूप से गुलाम और आर्थिक रूप से हाशिये पर पहुंचे लोग हैं। विशेष रूप से उत्तरी राज्यों में।

मुस्लिम समाज की करीब 85 प्रतिशत आबादी पसमांदा समाज की ही है। नगरीय निकाय चुनाव में इस वोटबैंक पर कब्जा करके बीजेपी की कोशिश सपा और बसपा का गढ़ माने जाने वाली उन सीटों को भी जीतना है, जहां कभी कमल नहीं खिला। सत्ताधारी भाजपा अब निकाय चुनाव में नया प्रयोग करके मुस्लिम आबादी वाले क्षेत्रों पर भी भगवा लहराने की तैयारी में है। बीजेपी ने वार्ड लेवल पर सैकड़ों उम्मीदवार और अध्यक्ष पद पर तकरीबन 60 प्रत्याशियों की तलाश की है‌। सीटों पर आरक्षण की प्रक्रिया पूरी होते ही पसमांदा मुसलमानों के ऐसे प्रत्याशियों को टिकट दिया जाएगा, जिनकी छवि साफ-सुथरी है और जो जिताऊ उम्मीदवार साबित हो सकते हैं।

पसमांदा मुसलमानों को पिछड़ा और गरीब तबका माना जाता है। इस समाज में अंसारी, सलमानी, इदरीसी, फकीर, अल्वी, कुरैशी, घोसी, राईन, रंगरेज, बुनकर, धुनिया, मंसूरी, धोबी, नाई, गुजर, लोहार, सैफी, कासगर, मल्लाह, गद्दी-घोसी, नट, राजमिस्त्री आदि मुसलमान आते हैं। मुसलमानों में 80 प्रतिशत बड़ी संख्या है। चूंकि यूपी और केंद्र दोनों ही जगह बीजेपी की सत्ता है, ऐसे में तमाम सरकारी योजनाओं का लाभ दिलाने के रास्ते इस समाज में पार्टी अपनी जगह बनाने की कोशिश कर सकती है।

भाजपा के अल्पसंख्यक मोर्चे में उत्तर प्रदेश में तीन चौथाई मुसलमान आबादी पसमांदा समाज से ही हैं। हाल ही में इनका प्रशिक्षण वर्ग भी किया गया था। इसके साथ ही पसमांदा समाज सम्मेलन का आयोजन भी किया गया था। खास बातें आ रही योगी सरकार ने दोबारा सत्ता में आने के साथ ही पसमांदा समाज के दानिश आजाद को मंत्री बना दिया। वह भी तब जब वह किसी सदन के सदस्य नहीं थे। बाद में उन्हें विधान परिषद में भेजा गया।

भारतीय जनता पार्टी लंबे समय से पसमांदा मुस्लिम समाज पर फोकस करके काम कर रही है। यह एक ऐसा वर्ग है जो राज्य से लेकर केंद्र सरकार की योजनाओं का लाभ उठा रहा है। कहीं न कहीं यह समाज सरकार की नीतियों से भी प्रभावित नजर आता है। भाजपा की कोशिश इस वर्ग को राजनैतिक लीडरशिप देकर एक नया वोट बैंक आधार तैयार करने की है। भाजपा निकाय चुनाव में जिन सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार उतारेगी, उसमें पहली पसंद पसमांदा समाज के ही लोग होंगे।

दरअसल पसमांदा मुसलमानों के नेता लगातार दावा करते हैं कि अल्पसंख्यक आबादी में 80-85 प्रतिशत पसमांदा मुसलमान ही हैं लेकिन उनको उनकी संख्या के हिसाब से हक नहीं मिलता। अल्पसंख्यकों के तमाम संगठनों, संस्थानों में उच्चवर्गीय मुसलमानों का ही वर्चस्व है। बाकी के 20 प्रतिशत में सैयद, शेख, पठान जैसे उच्च जाति के मुसलमान हैं। समाज पर राज 20 प्रतिशत मुसलमान करते हैं, जो अगड़े मुसलमान सामाजिक और आर्थिक तौर पर ये मजबूत हैं और सभी सियासी दलों में इन्हीं का वर्चस्व रहा है।

पसमांदा समाज के नेताओं का मानना है कि कांग्रेस, सपा, बसपा आदि पार्टियों में पसमांदा समाज के उत्थान के लिए कुछ खास नहीं किया गया। राजनीतिक प्रतिनिधित्व भी वैसा नहीं मिला, जितनी जरूरत थी। यही नहीं मुस्लिम समाज में जातिगत विभेद मंडल कमीशन से लेकर सच्चर समिति तक सभी ने स्वीकार किया है लेकिन सार्वजनिक तौर पर ये बात कहीं दब जाती है। मुस्लिमों से जुड़े संस्थानों, एनजीओ आदि में पसमांदा समाज की नुमाइंदगी न के बराबर है। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, जमात-ए-इस्लामी, मिल्ली काउंसिल से लेकर तमाम संगठनों/संस्थाएं इसका उदाहरण हैं।

यूपी में सत्ता में आने के बाद 2017 से ही पसमांदा समाज को जोड़ने पर काम जरूर शुरू हो गया और 2022 के यूपी विधानसभा चुनावों में इसका परिणाम भी मिला। इस चुनाव में बीजेपी को करीब 8 प्रतिशत वोट मिला। चुनावों से कहीं पहले बीजेपी में संगठन स्तर पर एक कमेटी बनी, जिसने प्रदेश में हर बूथ पर पसमांदा मुसलमानों को जोड़ने के लिए रणनीति के तहत काम शुरू किया।