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बम्हनीडीह विकासखंड के किसान फिरसिंह उतेरा पद्धति से अपने खेत में कर रहे गेंहू की बोआई

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छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा राज्य के किसानों को विभिन्न विभागीय योजनाओं से ज्यादा से ज्यादा लाभान्वित करने लगातार कार्य किया जा रहा है। इसी कड़ी में कलेक्टर श्री तारन प्रकाश सिन्हा के मार्गदर्शन में जिले में कृषि विभाग एवं अन्य संबंधित विभाग द्वारा जिले के किसानों को उतेरा पद्धति से फसल लेने के लिए बढ़ावा दिया जा रहा है। उत्तेरा में तिवडा, अलसी, राई-सरसों, मूंग, उड़द, मसूर आदि फसलों की बुवाई की जाती है। इसी क्रम में ग्राम पोडीकला विकासखण्ड बम्हनीडीह के किसान श्री फिर सिंह पिता श्री देवी सिंह द्वारा उतेरा पद्धति से बोआई कर गेहूँ (किस्म एच. आई.1544) फसल अपने 1.5 एकड़ क्षेत्र में लगाया गया है और वर्तमान में उनकी फसल अंकुरित होकर वृद्धि कर रहे हैं।
      उत्तेरा खेती में एक फसल कटने से पहले दूसरी फसल को बोया जाता है। दूसरी फसलों की बुआई पहली फसल कटने के पहले ही कर दी जाती है। जिसके चलते पहली फसल के ठंडल खेत में जैविक खाद में तब्दील हो जाते हैं और फसल के अवशेष प्राकृतिक या जैविक खाद का कार्य करते हैं। उतेरा फसलों की खेती वर्षा आधारित क्षेत्र में धान फसल की कटाई के लगभग 20-25 दिन पूर्व धान की खड़ी फसल में दलहन, तिलहन फसलों के बीज को छिड़काव विधि से बोआई की जाती है।
     इस विधि के तहत बारिश या सिचांई की नमी में धान की फसल के बीच बीज छिड़क दिए जाते हैं। ऐसा करते वक्त सावधानी रखनी होती है कि खेत का पानी सूख जाए तभी बीजों का छिड़काव किया जाए। इन फसलों को अलग-अलग नमी के हिसाब से छिड़का या बोया जाता हैं। सही देखरेख, सही समयावधि के भीतर बीजों के छिड़काव के बाद बीज धीरे-धीरे अंकुरित होने लगते हैं। जब धान पककर तैयार हो जाता है तो बड़ी सावधानी से इसकी कटाई की जाती है, जिससे नई अंकुरित फसल को नुकसान न हो।
उतेरा फसल से खेतों की नमी का होता है बेहतर उपयोग –
      किसानों के अतिरिक्त आय में वृद्धि करने के लिए उतेरा खेती एक बेहतर विकल्प है। उतेरा खेती का मुख्य उद्देश्य खेतों में मौजूद नमी का उपयोग अगली फसल के अंकुरण तथा वृद्धि के साथ ही द्विफसलीय क्षेत्र विस्तार को बढ़ावा देना है। इसके माध्यम से किसानों को धान के साथ-साथ दलहन, तिलहन और अतिरिक्त उपज मिल जाती है। दलहन फसलों से खेतों को नाईट्रोजन भी प्राप्त होता है। इस विधि से खेती करने से मिट्टी को नुकसान नहीं पहुंचता और जैव विविधता व पर्यावरण का संरक्षण भी होता है।