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केसरी नाथ त्रिपाठी का वह निर्णय, जिसने बनवा दी मुलायम सरकार… संसदीय इतिहास में ऐसे अमर रहेंगे पूर्व विधानसभा अध्यक्ष

लखनऊ: उत्तर प्रदेश की राजनीति में केसरी नाथ त्रिपाठी का अपना अलग स्थान रहा है। उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष के रूप में लिए गए उनके फैसलों ने सवाल उठाए। लोकतंत्र, संसदीय प्रणाली और राजनीति के बदलते स्वरूप पर प्रश्न खड़ा किया। लेकिन, उन्होंने हमेशा अपने फैसलों का बचाव किया। लोकतंत्र की मजबूती के रूप में उसे पेश किया। वर्ष 2003 में मुलायम सिंह यादव की सरकार को बनवाने में और उसे 5 साल तक चलवाने में यूपी विधानसभा के तत्कालीन अध्यक्ष केसरी नाथ त्रिपाठी का अहम योगदान माना जाता है। केसरीनाथ त्रिपाठी की कुशल राजनेता के तौर पर पहचान रही है। ऐसे राजनेता, जो अपने फैसले पर हमेशा डटे रहे। उत्तर प्रदेश विधानसभा हो या पश्चिम बंगाल का राज्यपाल का पद दोनों ही स्थानों पर उन्होंने अपनी छाप छोड़ी। ममता बनर्जी के साथ अदावत और तृणमूल कांग्रेस एवं कम्युनिष्ट के गढ़ में भाजपा को स्थापित करने में उनके निर्णय और कार्यों की बड़ी भूमिका रही। कई मौकों पर ममता बनर्जी और केसरी नाथ त्रिपाठी आमने-सामने आते दिखे थे। 90 साल के केसरी नाथ त्रिपाठी पिछले काफी समय से बीमार चल रहे थे। रविवार को उनके निधन की सूचना आई है।

कड़े प्रशासक, कुशल राजनेता
केसरीनाथ त्रिपाठी का जन्म 10 नवंबर 1934 को हुआ। यूपी से निकलकर केसरीनाथ त्रिपाठी ने कई राज्यों में अपने प्रशासनिक फैसलों की छाप छोड़ी। पश्चिम बंगाल में लंबे समय तक राज्यपाल के रूप में कार्य करने वाले नेता के तौर पर भी वे जाने जाते हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ खट्टे- मीठे संबंध रहने के बावजूद उनकी छवि एक कड़े प्रशासक के रूप में देखी गई। जुलाई 2014 से 2 जुलाई 2019 तक वे पश्चिम बंगाल के राज्यपाल के रूप में नियुक्त रहे थे। केसरीनाथ त्रिपाठी बिहार, मेघालय और मिजोरम के राज्यपाल के पद पर भी रहे। उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए वे तीन बार चुने गए। विधानसभा अध्यक्ष बने। उत्तर प्रदेश भाजपा इकाई के अध्यक्ष भी रहे।यूपी विधानसभा के तौर पर उनके यादगार फैसले की कहानी
केसरीनाथ त्रिपाठी को उनके विधानसभा अध्यक्ष के रूप में लिए गए फैसलों को लेकर खासी चर्चा मिली। वर्ष 2002 के यूपी विधानसभा चुनाव का परिणाम किसी भी एक दल के पक्ष में नहीं आया था। समाजवादी पार्टी को 143 सीटें मिली थी और वह विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी बनी थी। दूसरे नंबर पर बहुजन समाज पार्टी रही थी और उसे 98 सीटों पर जीत मिली थी। तीसरे नंबर पर रही भारतीय जनता पार्टी को 88 सीटें, कांग्रेस को 25 सीटें और अजीत सिंह की राष्ट्रीय लोक दल को 14 सीटों पर जीत मिली थी। किसी भी दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिलने के बाद प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया।

भाजपा और राष्ट्रीय लोक दल ने बाद में बहुजन समाज पार्टी को समर्थन दे दिया। 3 मई 2002 को मायावती मुख्यमंत्री बन गईं। विधानसभा अध्यक्ष के तौर पर केसरी नाथ त्रिपाठी का चयन हुआ। मायावती कैबिनेट में लालजी टंडन, ओम प्रकाश सिंह, कलराज मिश्र, हुकुम सिंह जैसे भाजपा के कद्दावर नेता मंत्री बने। लेकिन, 2003 आते-आते मायावती और भाजपा के बीच ठन गई। मायावती ने निर्दलीय विधायक रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया पर पोटा के तहत केस करवा दिया। दरअसल, राजा भैया और धनंजय सिंह समेत 20 विधायकों ने राज्यपाल विष्णुकांत शास्त्री से मिलकर मायावती सरकार को बर्खास्त करने की मांग की थी। नवंबर 2002 में उन्हें जेल में बंद कर दिया गया था।

भाजपा के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष विनय कटियार ने राजा भैया से पोटा हटाने की मांग की। मायावती नहीं मानीं। इसके बाद रिश्ते बिगड़ने लगे। ताज कॉरिडोर मामले में यूपी और केंद्र सरकार के बीच मामला बिगड़ा। 29 जुलाई 2003 को मायावती ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर जगमोहन को हटाने की मांग केंद्र सरकार से कर दी। जगमोहन उस समय अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में पर्यटन मंत्री थे। दोनों दलों के बीच रिश्ते बिगड़ने लगे। 26 अगस्त 2003 को मायावती ने कैबिनेट की बैठक में विधानसभा भंग करने को की सिफारिश की। अपना इस्तीफा राज्यपाल को सौंप दिया।

बिगड़ती स्थिति के बीच भाजपा नेताओं ने राज्यपाल से मुलाकात कर समर्थन वापसी का पत्र दे दिया। राज्यपाल ने समर्थन वापसी का पत्र इस्तीफा के पत्र मिलने से पहले माना। विधानसभा भंग नहीं किया गया। इसके बाद विधानसभा अध्यक्ष केसरी नाथ त्रिपाठी ने खेल शुरू किया। 26 अगस्त 2003 को ही मुलायम सिंह यादव ने सरकार बनाने का दावा पेश किया। 27 अगस्त 2003 को बसपा के 13 विधायकों ने राज्यपाल से मुलाकात कर मुलायम को मुख्यमंत्री के लिए समर्थन देने का पत्र दे दिया। बसपा की ओर से इन विधायकों पर दल बदल निरोधक कानून और संविधान की दसवीं अनुसूची के उल्लंघन का आरोप लगाते हुए सदस्यता खारिज करने की मांग की।

बसपा विधायक दल के तत्कालीन नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने विधानसभा अध्यक्ष केसरीनाथ त्रिपाठी से मुलाकात की। उन्हें याचिका सौंपी। लेकिन, विधानसभा अध्यक्ष केसरी नाथ त्रिपाठी ने इस पर कोई फैसला नहीं लिया। 13 बागी विधायकों का समर्थन मिलने के बाद मुलायम 210 विधायकों के समर्थन का पत्र लेकर राजभवन पहुंचे। राज्यपाल विष्णु कांत शास्त्री ने उन्हें सरकार बनाने के लिए बुलाया। 29 अगस्त 2003 को मुलायम मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। बहुमत सिद्ध करने के लिए 2 सप्ताह का समय मिला। मुलायम ने बहुमत साबित कर दिया। मुलायम की इस सरकार में राष्ट्रीय लोक दल, कल्याण सिंह की राष्ट्रीय क्रांति पार्टी के अलावा निर्दलीय और छोटी पार्टियों के 19 विधायक शामिल थे।

इसी बीच बसपा के 37 विधायकों ने 6 सितंबर को विधानसभा अध्यक्ष केसरी नाथ त्रिपाठी से मुलाकात कर उन्हें अलग दल के रूप में मान्यता देने की मांग की। विधानसभा अध्यक्ष इसी प्रकार की स्थिति के इंतजार में थे। केसरी नाथ त्रिपाठी ने उसी शाम विभाजन को मान्यता दे दी। उस समय तक बसपा विधायक दल के नेता के 13 विधायकों के दल-बदल मामले में कार्रवाई की याचिका उनके टेबल पर पड़ी थी। वे कोई फैसला नहीं कर पाए थे। दरअसल, केसरी नाथ त्रिपाठी बसपा के एक-तिहाई विधायकों के टूटने का इंतजार कर रहे थे। इससे उनका विभाजन दल- बदल कानून के दायरे में न आए।

विधानसभा अध्यक्ष के फैसले का केस कोर्ट पहुंचा। बसपा ने इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ खंडपीठ में रिट याचिका दायर कर 13 बागी विधायकों की सदस्यता रद्द नहीं करने और पार्टी में विभाजन को मान्यता देने के विधानसभा अध्यक्ष के फैसले को चुनौती दी। कोर्ट में मामला चलता रहा और मुलायम सिंह यादव की सरकार भी। मुलायम सिंह यादव सरकार ने भी भाजपा के केसरी नाथ त्रिपाठी को विधानसभा अध्यक्ष बने रहने दिया। केसरी नाथ त्रिपाठी 19 मई 2004 को केंद्रीय नेतृत्व के कहने पर विधानसभा अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। यूपी भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर अपना कार्यभार संभाला। सुप्रीम कोर्ट ने 14 फरवरी 2007 को बसपा में हुई टूट को अवैध बताया। 13 बागी विधायकों की सदस्यता रद्द कर दी। तब तक मुलायम सरकार का कार्यकाल पूरा हो चुका था। केसरी नाथ त्रिपाठी का यह फैसला विधानसभा अध्यक्ष के पावर के तौर पर हमेशा याद किया जाता है।