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RSS चीफ मोहन भागवत के बयान का खामियाजा भुगतेगी BJP? ब्राह्मण समाज की नाराजगी कितनी पड़ सकती है भारी? समझिए

लखनऊ: उत्तर प्रदेश इस देश की राजनीति के लिहाज से सबसे अहम और मजबूत राज्य है। ऐसा क्यों है, इसकी बानगी भी समय-समय पर देखने को मिल जाती है। हालिया मामले को देखें तो बिहार के मंत्री की तरफ से रामचरितमानस की चौपाइयों को लेकर जो विवाद उछला, उसकी राजनीति सबसे अधिक उत्तर प्रदेश में देखने को मिली क्योंकि समाजवादी पार्टी के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य बयानबाजी शुरू कर दी। अब एक और प्रकरण सामने आया है। मुंबई में एक कार्यक्रम के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के प्रमुख मोहन भागवत (Mohan Bhagwat) ने रविदास जयंती कार्यक्रम में बोलते हुए जाति व्यवस्था और उसमें ब्राह्मण वर्ग की भूमिका पर एक वक्तव्य दे दिया।‌ इस बयान पर राजनीति शुरू हो गई है, जो जाहिर तौर पर सबसे अधिक असर उत्तर प्रदेश में ही देखने को मिल रहा है। भागवत के बयान के बाद ब्राह्मण समाज नाराज बताया जा रहा है। आरएसएस और भाजपा के खिलाफ ब्राह्मण समाज से लेकर संत समुदाय तक नाराजगी देखने को मिल रही है। अब ऐसे में अहम सवाल यह उठता है कि क्या आगामी निकाय चुनाव और उसके बाद अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को ब्राह्मणों की नाराजगी का सामना करना पड़ सकता है? आइए समझते हैं।

दरअसल मोहन भागवत ने कहा है कि भगवान एक हैं और उसने ही सब को एक समान ही पैदा किया है। किसी तरह पर भेदभाव नहीं किया। पंडितों ने श्रेणी बनाई। यानी कि ब्राह्मण (आम बोलचाल में पंडित) वर्ग ने जाति व्यवस्था और वर्ण का भेद पैदा किया। विदेशी आक्रमणकारियों का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि हमारे समाज को बांटकर लोगों ने हमेशा से फायदा उठाया है। नहीं तो किसी के अंदर हमारी ओर नजर उठाकर देखने के लिए भी हिम्मत नहीं थी। जब समाज में अपनापन खत्म हो जाता है तो उसको अपने आपकी बड़ा हो जाता है। भागवत की इस बात पर अखिलेश यादव, स्वामी प्रसाद मौर्या, चंद्रशेखर रावण सहित विपक्षी दलों की तरफ से निशाना तो साधा ही गया है। साथ ही संत समुदाय ने भी कड़ा विरोध दर्ज कराया है।

संत समाज ने किया RSS मुखिया के बयान का विरोध
अयोध्या के श्रीराम जन्मभूमि मंदिर के मुख्य पुजारी आचार्य सत्येंद्र दास ने भागवत के बयान पर कड़ी आपत्ति दर्ज कराई। उन्होंने कहा कि मोहन भागवत ने कभी खुद गीता नहीं पढ़ी होगी और उन्होंने पढ़ी होती तो इस प्रकार की बात नहीं करते। स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने 4 वर्णों का विभाजन किया है। अगर यह बात उनको नहीं पता है तो गीता पढ़ लें। और यह जान लें कि ब्राह्मणों ने जाति का विभाजन नहीं किया है, बल्कि सामाजिक व्यवस्था के संचालन के लिए खुद भगवान ने ही सृष्टि में 4 वर्ण को कर्म के अनुसार विभाजित किया है। कुछ ऐसी ही बात शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती ने भी कही है। उन्होंने सवाल उठाते हुए कहा कि संघ प्रमुख ने किस शास्त्र के हवाले से जाति व्यवस्था के बारे में यह बात कही, इसको उन्हें स्पष्ट करना चाहिए। उन्होंने ऐसा कौन सा अनुसंधान कर लिया, जिससे पता चला कि वर्ण विभाजन पंडितों ने किया है।

स्वामी मौर्य और अखिलेश ने लपक लिया बयान
रामचरितमानस की चौपाई के मुद्दे पर एग्रेसिव पॉलिटिक्स कर रहे स्वामी प्रसाद मौर्य ने कहा कि जाति व्यवस्था पंडितों ने बनाई, यह कहकर आरएसएस प्रमुख श्री भागवत ने धर्म की आड़ में महिलाओं, आदिवासियों, दलितों और पिछड़ों को गाली देने वाले तथाकथित धर्म के ठेकेदारों और ढोंगियों की कलई खोल दी है। कम से कम अब तो रामचरितमानस से आपत्तिजनक टिप्पणी हटाने के लिए आगे आना चाहिए। और उन्होंने यह मांग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी कर डाली। सपा के MLC यहीं नहीं रुके। उन्होंने कहा कि मात्र बयान देकर लीपापोती करने से बात बनने वाली नहीं है। साहस है तो केंद्र सरकार को कह कर रामचरितमानस से जातिसूचक शब्दों को हटा देना चाहिए।

समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव भी कहां पीछे रहने वाले थे। उन्होंने भी संघ प्रमुख के बयान पर पलटवार करते हुए कहा कि भगवान के सामने तो स्पष्ट कर ही रहे हैं। कृपया इसमें यह भी स्पष्ट कर दिया जाए कि इंसान के सामने जातिवाद को लेकर क्या वस्तुस्थिति है। आजाद समाज पार्टी के नेता चंद्रशेखर आजाद ने इस पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा है कि अगर किसी महाकाव्य में अपमानजनक टिप्पणी की गई तो जिन लोगों ने भी ठेकेदारी ले रखी है, उसे तब्दील करना चाहिए। अगर मोहन भागवत दलितों के सच्चे हितैषी हैं तो जाति व्यवस्था को खत्म करने पर बात करनी चाहिए।

संख्या कम लेकिन राजनीति पर दखल रखता है वर्ग
दरअसल यह बात समझने वाली है कि आजादी के बाद से जो भारतीय लोकतंत्रिक व्यवस्था शुरू हुई, उसमें यूपी की सियासत में ब्राह्मण समुदाय का बोलबाला रहा। लेकिन 1990 के दौर के बाद जब मंडल सियासत तेज हुई तो फिर यह दबदबा खत्म हो गया। इसके पहले तक यूपी में सीएम की कुर्सी पर 6 ब्राह्मण नेता बैठ चुके थे। लेकिन 1989 के बाद से 33 साल से अधिक का समय गुजर गया और यह वर्ग सत्ता की कुर्सी से अभी तक दूर है। ब्राह्मणों की आबादी यूपी में भले ही 12 प्रतिशत हो लेकिन यह वर्ग जीत और हार का अंतर पैदा करने का असर रखता है। खास तौर पर पूर्वांचल और अवध क्षेत्र के 20 से अधिक जिलों में ब्राह्मणों का राजनीति में अच्छा खासा दखल है।

जिसने ब्राह्मणों को साधा, उसे मिला सियासी फायदा
आजादी के बाद ब्राह्मण समाज कांग्रेस पार्टी के साथ लगा रहा। लेकिन भारतीय जनता पार्टी के उदय के साथ ही इस समुदाय का कांग्रेस से मोहभंग हो गया। 1989 के बाद से उत्तर प्रदेश की सियासत में जिस किसी भी पार्टी ने ब्राह्मण कार्ड मजबूती से खेला, उसे सियासी तौर पर बड़ा फायदा हुआ है। यह बात ऐसे समझ सकते हैं कि दलितों के मुद्दे पर राजनीति करने वाली मायावती को भी 2007 में ब्राह्मणों को साथ में लेकर कॉम्बिनेशन बनाना पड़ा। प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की सरकार बनी। समाजवादी पार्टी की बात करें तो यह वर्ग मोटे तौर पर छटका हुआ ही नजर आता है। लेकिन अखिलेश यादव ने ब्राह्मण नेताओं को तवज्जो दी। 2017 के चुनाव से पहले परशुराम की मूर्ति लगाकर साधने की कोशिश की गई। हालांकि यह वर्ग मोटे तौर पर भारतीय जनता पार्टी के साथ ही जुड़ा हुआ नजर आता है। कानपुर के बिकरू में गैंगस्टर विकास दुबे के एनकाउंटर और खुशी दुबे को जेल भेजे जाने के मुद्दों को भी विपक्ष ने पूरी हवा देने की कोशिश की। लेकिन जब चुनाव के रिजल्ट आए तो उस स्थिति साफ हो गई।

2007 से 2022 तक का पूरा गणित समझिए
पिछले करीब डेढ़ दशक के दौरान यूपी की राजनीतिक आंकड़ों पर गौर करें तो 2007 में जब मायावती सत्ता में आईं तो उसमें बसपा से 41 ब्राह्मण विधायक चुनकर आए थे। दलित और ब्राह्मण के गठजोड़ को बसपा ने सोशल इंजीनियरिंग का नाम दिया था। 2012 में जब समाजवादी पार्टी ने सरकार बनाई तो सपा के टिकट पर 21 विधायक जीते, जबकि भारतीय जनता पार्टी को 38 फीसदी ब्राह्मण समुदाय का वोट मिला। इसके बाद साल 2014 लोकसभा चुनाव में 72 प्रतिशत ब्रह्मणों ने बीजेपी गठबंधन के पक्ष में वोट किया। सपा और बसपा पर महज पांच-पांच फीसदी ब्राह्मण से संतोष करना पड़ा। कांग्रेस पार्टी को 11% ब्राह्मणों के वोट मिले। उसके बाद 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में कुल 58 ब्राह्मण विधायक जीते, जिसमें से 46 भाजपा से ही थे‌। 2019 की बात करें तो बीजेपी को मिलने वाले ब्राह्मणों का वोट प्रतिशत बढ़कर 82 पहुंच गया। बाकी के 18 प्रतिशत में कांग्रेस के अलावा सपा और बसपा गठबंधन को भी वोट मिले। पिछले साल 2022 में हुए विधानसभा चुनाव में ब्राह्मण वर्ग ने रिकॉर्डतोड़ समर्थन किया और 89% वोट बीजेपी को मिला।

अब रामचरितमानस और फिर मोहन भागवत के बयान के बाद मौजूदा राजनीतिक स्थिति गरमा गई है। भारतीय जनता पार्टी ब्राह्मणों को एक तरीके से अपना कोर वोटबैंक समझ रही है। लेकिन नाराज होने की स्थिति में उसे साधने का प्रयास भी करना होगा। एक तरफ जहां विपक्षी दल जाति आधारित जनगणना की बात करते हुए राजनीतिक गोटियां आगे बढ़ा रहे हैं। तो ऐसे में भारतीय जनता पार्टी की कोशिश ओबीसी और एससी समाज के साथ सवर्ण और विशेष तौर पर ब्राह्मणों को भी साधने का प्रयास करना होगा। ऐसा नहीं होने की स्थिति में विपक्षी दलों की सेंधमारी भगवा खेमे पर भारी पड़ सकती है।