Lok Shakti

Nationalism Always Empower People

क्यों अमृतकाल को धूंधलाने में लगा है विपक्ष?

Default Featured Image
ललित गर्ग

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं उनकी सरकार की नजर अमृतकाल पर है, उन्होंने ‘नए भारत’ ‘सशक्त भारत’ की नींव रखी है, जो अपनी स्वाधीनता के सौवें वर्ष 2047 में साकार होगा। हालही में प्रस्तुत बजट ‘अमृत काल’ को सबसे अच्छे ढंग से रेखांकित करता है। सरकार की रणनीतियां एवं योजनाएं भी उसी को केन्द्र में रखकर बन रही है। लेकिन बड़ी विडम्बना है कि समूचा विपक्ष अमृतकाल को धूंधला में लगा है। अमृत काल को अमृतमय बनाने में विपक्ष की जिम्मेदारपूर्ण भूमिका की अपेक्षा की जा रही है, लेकिन ऐसा होने वाला नहीं दिख रहा है, क्योंकि उसने अपनी दिशाहीनता की स्थिति को ही बार-बार उजागर किया है, बजट सत्र में यह बात स्पष्ट हो गयी है। यह कैसी राजनीति है, यह कैसा विपक्ष की जिम्मेदारियां का प्रदर्शन है, जिसमें अपनी राजनीतिक स्वार्थ की रोटियां सेंकने के नाम पर नये भारत को निर्मित करने, जनता के हितों एवं अमृतकाल की उपेक्षा की जा रही है।
भारतीय लोकतंत्र के सम्मुख एक ज्वलंत प्रश्न उभर के सामने आया है कि क्या भारतीय राजनीति विपक्ष विहीन हो गई है? विपक्ष पूर्णतः छिन्न-भिन्न होकर इतना कमजोर एवं निस्तेज नजर आ रहा है कि सशक्त या ठोस राजनीतिक विकल्प की संभावनाएं मृत प्रायः लग रही हैं। इतना ही नहीं, विपक्ष राजनीति ही नहीं, नीति विहीन भी हो गया है? यही कारण है कि आजादी का अमृत महोत्सव के अवसर तक पहुंचते हुए राजनीतिक सफर में विपक्ष की इतनी निस्तेज, बदतर एवं विलोपपूर्ण स्थिति कभी नहीं रही। इस तरह का माहौल लोकतंत्र के लिये एक चुनौती एवं विडम्बना है। इस दृष्टि से विचार करें तो भारत में राष्ट्रीय स्तर पर या कई राज्यों में विपक्ष का व्यवहार निराश करने वाला है। विपक्षी दल और नेता भाजपा को पराजित तो करना चाहते हैं, मोदी की लगातार सशक्त होती छवि एवं स्थिति को कमजोर करना चाहते हैं पर समझ नहीं पा रहे कि किन मुद्दों को लेकर संघर्ष करें और जनता के बीच जाएं। न उनके पास प्रभावी मुद्दे हैं और न मुद्दों को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करने का माद्दा है। भला भाजपा को ब्राह्मणवादी या दलित-पिछड़ा विरोधी साबित कर स्वयं को इनका झंडाबरदार बताने या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को निशाने पर लेने या अडाणी जैसे उद्योगपतियों पर बेवजह संदेह करने से वे विपक्षी धर्म का पालन नहीं कर पायेंगे। विपक्षी सांसदों ने प्रधानमंत्री के संबोधन के समय लगातार नारेबाजी करके यही सिद्ध किया कि उनके पास न तो कहने को कुछ सार्थक है और न ही सुनने को। अपने हंगामे के पक्ष में विपक्षी सांसदों के पास कुछ तर्क हो सकते हैं, लेकिन उन्होंने खीझ पैदा करने वाली अपनी नारेबाजी से प्रधानमंत्री के इस कथन को सही साबित किया कि एक अकेला कितनों पर भारी पड़ रहा है। एक समय मुसलमानों, ईसाइयों जैसे अल्पसंख्यकों में संघ और भाजपा के विरुद्ध डर पैदा कर उनका ध्रुवीकरण किया जाता था। इन्हें ऊंची जाति का हिमायती बताकर पिछड़ों और दलितों के एक समूह को लुभाया जाता था।
कहां है प्रभावी विपक्ष, कहां है देशहित के मुद्दे। विपक्ष की कोशिश हर हाल में भाजपा, संघ और प्रधानमंत्री को उद्योगपतियों का हितैषी, मुसलमानों-दलितों-आदिवासियों का विरोधी तथा सवर्ण जातियों का समर्थक साबित करने की प्रतीत होती है। क्या इन मुद्दों के आधार पर विपक्ष भाजपा को कमजोर करने में सफल हो पाएगा? यह भारत का दुर्भाग्य है कि वर्तमान विपक्ष का बड़ा समूह अभी भी देश में हो रहे सकारात्मक बदलाव एवं विकास को समझने में विफल है। इस कारण विपक्षी दल एवं उसके नेता राजनीति को वहां ले जाना चाहते हैं जिनसे भारत अब काफी आगे निकल चुका है। गुजरात दंगों पर बीबीसी की रिपोर्ट को हर हाल में दिखाने पर तुले और संपूर्ण विपक्ष द्वारा इसे मुद्दा बनाए जाने के बावजूद गैर मुस्लिमों को तो छोड़िए आम मुसलमान भी भाजपा के विरुद्ध आक्रामक होकर सामने आते नहीं दिखे। क्यों? बिहार और उत्तर प्रदेश में रामचरितमानस को निचली जातियों का विरोधी बताना क्या है? अब भारत ऐसे संकीर्ण एवं साम्प्रदायिक आग्रहों से, धर्म, जाति, वर्ग, भाषा के विवादों से बाहर आकर विकास पर अपना ध्यान केन्द्रित किये हुए है, देश की जनता और अल्पसंख्यक समुदाय भी विकास चाहते हैं, भारत को शक्तिशाली बनते हुए देखना चाहते हैं। आमजन समझ चुके हैं कि भारत को अगर विश्व की प्रमुख आर्थिक शक्ति बनना है तो उसमें हमारे उद्योगपतियों की अहम भूमिका होगी। इसलिये अडाणी के नाम पर मोदी को दागी बनाने की विपक्ष की कुचेष्ठाओं एवं षड़यंत्रों के तमाम प्रयासों के बाद भी जनता उद्वेलित नहीं है। विपक्ष जनता को यह समझाने में भी नाकाम रहा है कि अदाणी समूह के कारण जनता के हित या सरकारी बैंकों का निवेश खतरे में पड़ गए हैं। अदाणी समूह के मामले को विपक्ष जिस तरह पेश कर रहा है, उससे यदि कुछ स्पष्ट हो रहा है तो यही कि वह सरकार को घेरने के लिए राफेल लड़ाकू विमानों की खरीद और पेगासस जासूसी प्रकरण की तरह से एक और मामला खोज लाया है। यह मामला भी राफेल और पेगासस की तरह टांय-टांय फिस्स हो गया।
हाल ही बजट-सत्र में मोदी का उद्बोधन विपक्ष पर करारा तमाचा है, मोदी ने बच्चों को पाठ पढ़ाने की मुद्रा में विपक्ष को अनेक नसीहतें दी, लेकिन यह कहना कठिन है कि विपक्ष प्रधानमंत्री की किसी नसीहत पर ध्यान देगा, लेकिन उन्होंने यह सही कहा कि जितना कीचड़ उछालोगे, उतना ही कमल खिलेगा। विपक्ष को यह आभास हो जाए तो अच्छा कि झूठ के पांव नहीं होते। विपक्ष ने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव को लेकर हुई चर्चा को जिस तरह अदाणी समूह तक केंद्रित करने की रणनीति बनाई, उसे प्रधानमंत्री ने पहले लोकसभा में नाकाम किया और फिर राज्यसभा में। उन्होंने इस मामले में विपक्ष के सवालों पर सीधे तौर पर कुछ न कहकर यही संदेश दिया कि इस मसले पर सरकार को नहीं घेरा जा सकता। क्योंकि आज हिंदुत्व और हिंदुत्व केंद्रित राष्ट्रवाद के चलते देश की सत्ता और राजनीति में कुछ व्यावहारिक एवं सकारात्मक रूपांतरण आया है। आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक विकास तथा रक्षा-सुरक्षा-विज्ञान, शिक्षा-चिकित्सा के मोर्चे पर व्यापक कार्यों से जमीनी यथार्थ भी बदला है, देश सशक्त हुआ है, आतंकवाद एवं हिंसा पर नियंत्रण ने जनता के बीच अमन एवं शांति का वातावरण बनाया है। जम्मू-कश्मीर में हर दिन होने वाली आतंकवादी एवं हिंसा की घटनाएं अब कहां देखने को मिलती है? देश में भी बार-बार होने वाले आतंकी हमले, साम्प्रदायिक हिंसा अब कहां है? विपक्ष की संकीर्ण राजनीति के अलावा कहीं भी हाहाकार का दृश्य नहीं दिख रहा। स्वयं राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा में सरकार के विरुद्ध करने के लिए भाषण दिए, लेकिन कहीं कोई हलचल दिखाई नहीं दी, उनको कहना पड़ा कि देश में शांति है। सच को झूठे तथ्यों और सिद्धांतों के आवरण में ज्यादा दिन तक नहीं ढका जा सकता। आज नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा बहुमत के साथ केंद्र की सत्ता पर काबिज है तो इसका कारण यही है कि आम जनता का सोच काफी हद तक बदल चुकी है, वह तोड़ने वाली राजनीति की जगह जोड़ने वाली राजनीति का समर्थन करती है।
बात केवल विपक्ष की ही न हो, बात केवल मोदी को परास्त करने की भी न हो, बल्कि देश की भी हो अमृतकाल को देश-विकास का माध्यम बनाने की हो, तभी विपक्ष अपनी इस दुर्दशा से उपरत हो सकेगा। वह कुछ नयी संभावनाओं के द्वार खोले, देश-समाज की तमाम समस्याओं के समाधान का रास्ता दिखाए, सुरसा की तरह मुंह फैलाती महंगाई, गरीबी, अशिक्षा, अस्वास्थ्य, बेरोजगारी और अपराधों पर अंकुश लगाने का रोडमेप प्रस्तुत करे, तो उसकी स्वीकार्यता स्वयंमेय बढ़ जायेगी। व्यापार, अर्थव्यवस्था, बेरोजगारी, महंगाई, ग्रामीण जीवन एवं किसानों की खराब स्थिति की विपक्ष को यदि चिंता है तो इसे दिखना चाहिए। पर विपक्ष केंद्र या राज्य, दोनों ही स्तरों पर सरकार के लिये चुनौती बनने की बजाय केवल खुद को बचाने में लगा हुआ नजर रहा है। वह अपनी अस्मिता की लड़ाई तो लड़ रहा है पर सत्तारूढ़ दल को अपदस्थ करने की दृढ़ इच्छा एवं पात्रता स्वयं में विकसित नहीं कर पा रहा है। कांग्रेस ने भारतीय लोकतन्त्र में धन की महत्ता को ‘जन महत्ता’ से ऊपर प्रतिष्ठापित किये जाने के गंभीर प्रयास किये, जिसके परिणाम उसे भुगतने पड़ रहे हैं। क्या इन विषम एवं अंधकारमय स्थितियों में कांग्रेस या अन्य विपक्षी दल कोई रोशनी बन सकते हैं, अमृतकाल में कोई अहम भूमिका निभा सकते हैं, अपनी सार्थक भूमिका के निर्वाह के लिये तत्पर हो सकते हैं? विपक्ष ने मजबूती से अपनी सार्थक एवं प्रभावी भूमिका का निर्वाह नहीं किया तो उसके सामने आगे अंधेरा ही अंधेरा है।