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फिर संसद का क्या मतलब?


विपक्षी नेताओं के मन में यह बात क्यों गहराती जा रही है कि पीठासीन अधिकारियों के भेदभाव वाले व्यवहार के कारण संसद की सरकार की निगरानी और जवाबदेही तय करने की संवैधानिक भूमिका कमजोर होती जा रही है?
संसद के मौजूदा सत्र में दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारियों को लेकर विपक्ष में जो रोष नजर आ रहा है, उस पर गंभीरता से चर्चा किए जाने की जरूरत है। खासकर जिस तरह राष्ट्रपति के अभिभाषण पर हुई चर्चा के दौरान विपक्ष के नेताओं के भाषणों के कई हिस्सों को कार्यवाही से निकाला गया, उसका तर्क समझना लोगों को मुश्किल हो रहा है। अभी इस बात पर चर्चा चल रही थी कि राहुल गांधी को नोटिस जारी होने की खबर आई। दो सांसदों ने स्पीकर से शिकायत की की गौतम अडानी से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रिश्तों का जिक्र कर राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री का अपमान किया है। अब राहुल गांधी को बुधवार तक इस बारे में स्पष्टीकरण देने को कहा गया है कि उनके खिलाफ विशेषाधिकार की कार्यवाही क्यों नहीं चलाई जानी चाहिए। इस बीत तृणमूल कांग्रेस की महुआ मोइत्रा बार-बार यह शिकायत जता रही हैं कि भाजपा ने अलग-अलग विपक्षी नेताओं के लिए अपने अलग-अलग सांसदों की ड्यूटी तय कर रखी है, जो उनके भाषणों के दौरान लगातार व्यवधान पैदा करते रहते हैँ।
स्पीकर इस पर विपक्षी नेताओं को अपेक्षित संरक्षण देने में विफल रहते हैँ। उधर राज्यसभा में सभापति पर विपक्ष का आरोप है कि वे खुद विपक्षी नेताओं के भाषणों से लगातार टीका-टिप्पणी करते रहते हैं। साथ ही सत्ता पक्ष की मंशा के मुताबिक निर्णय लेते हैँ। जाहिर है, ये सभी बेहद गंभीर आरोप हैं। प्रश्न यह है कि विपक्षी नेताओं के मन में यह बात क्यों गहराती जा रही है कि पीठासीन अधिकारियों के भेदभाव वाले व्यवहार के कारण संसद की सरकार की निगरानी और जवाबदेही तय करने के मंच के रूप में संवैधानिक भूमिका कमजोर होती जा रही है? अगर सत्ता पक्ष सचमुच ऐसा नहीं करना चाहता है, तो उसे इस सिलसिले में विपक्ष से तुरंत संवाद स्थापित करना चाहिए और उसकी शिकायतों को दूर करना चाहिए।
वरना देश के एक बड़े जनमत के भीतर यह राय गहराती जाएगी कि भाजपा अपने भारी बहुमत का इस्तेमाल संसद और संसदीय प्रक्रियाओं को अप्रासंगिक बनाने के लिए कर रही है। यह लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी होगी।