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Editorial :- लॉर्ड माउंटबेटन-शेख अब्दुल्लाह-कृष्ण मेनन त्रिमूर्ति की सलाह पर नेहरू चले और कश्मीर तथा चीन समस्या बन गए

25 June 2020

पंडित जवाहर लाल नेहरू  को लॉर्ड माउंटबेटन और शेख अब्दुल्लाह तथा कृष्णा मेनन  पर भरोसा था . कश्मीर की समस्या के पीछे असली वजह इसी त्रिमूर्ति की नीतियां और सलाह थीं… जिन पर पंडित नेहरू काम करते गए. मानते चले गए . और यहीं से कश्मीर की समस्या लगातार उलझती चली गई।

 पाकिस्तान का कश्मीर के एक हिस्से पर कब्ज़ा आज भी बना हुआ है, जिसे हम क्कड्डद्मद्बह्यह्लड्डठ्ठ ह्रष्ष्ह्वश्चद्बद्गस्र ्यड्डह्यद्धद्वद्बह्म् कहते हैं. इसलिए पाकिस्तान का दावा हर तरह से गलत है.संयुक्त राष्ट्र के इस प्रस्ताव के मुताबिक जम्मू कश्मीर में दोनों देशों की तरफ से सीजफ़ायर होगा. लेकिन पाकिस्तान की तरफ से इस सीजफ़ायर का उल्लंघन अभी भी होता रहता है. 

  नेहरू के फैसले जो आजाद भारत के नासूर बन गए

 जम्मू-कश्मीर को लेकर आज जो स्थिति है वह देश के पहले प्रधानमंत्री और कांग्रेस नेता जवाहरलाल नेहरू के गलत फैसलों के वजह से पैदा हुई हैं। दरअसल, नेहरू ने कई ऐसे फैसले लिए, जो वक्त के साथ नासूर बन गए और जिनका दर्द अब भी हिन्दुस्तान का जनमानस झेल रहा है। आइए, एक नजर डालते हैं जवाहर लाल नेहरू के कुछ ऐसे ही फैसलों पर। 

नेहरू द्वारा आर्टिकल 370….

आज जो परेशानियां देश के सामने हैं, उनमें से अधिकांश पंडित नेहरू के समय की ही हैं। अगर कश्मीर की बात करें, तो कश्मीर के महाराजा ने बिना किसी शर्त के अपनी रियासत का भारत में विलय का प्रस्ताव दे दिया था, लेकिन नेहरू ने उस प्रस्ताव पर शेख अब्दुल्ला की सहमति को अनिवार्य बता दिया। धारा 370 और अन्य शर्तें कश्मीर मुद्दे पर नेहरू और शेख की बैठकों के बाद जोड़ी गईं। इस फैसले का असर यह हुआ कि भारत का अभिन्न अंग होते हुए भी कश्मीर में शेष भारत के प्रति एक तरह का अलगाव पैदा हो गया। आजादी के समय भारत में करीब 600 से अधिक रियासतों के विलय के लिए कुछ नियम बनाए गए थे। करीब दर्जन भर रियासतों को छोड़कर सभी का विलय तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल की मंशा के अनुसार भारत में हो गया था। कश्मीर रियासत का मामला नेहरू ने अपने पास रख लिया, जबकि यह उनके अधिकार क्षेत्र में नहीं आता था। कश्मीर के मामले में प्रधानमंत्री के तौर पर नेहरू के कई फैसलों ने कश्मीर का मामले को और ज्यादा उलझा दिया।

“भारतीय संघ के एक राज्य को विशेष दर्जा क्यों दिया गया  ? यह न केवल कश्मीरियों बल्कि अलगाववादियों, पाकिस्तान और वास्तव में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के लिए एक गलत संकेत दिया था कि जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग बनना बाकी , जितनी जल्दी धारा 370 खत्म हो गई है उतना बेहतर है। “

नेहरू का यह वादा कि अनुच्छेद 370 एक अस्थायी प्रावधान था और समय के साथ खत्म हो जाएगा, एक चिमरा बन गया।

नेहरू का कश्मीर मामले को संयुक्त राष्ट्र में ले जाना और सीज फायर का ऐलान करना

गृहमंत्री अमित शाह ने  नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी (एनएमएमएल) में ‘संकल्प फॉरमर सिविल सर्वेंट्स फॉरमÓ की ओर से आयोजित कार्यक्रम में ३० सितंबर २०१९ को कहा – कश्मीर मुद्दे को हृ ले जाना थी सबसे बड़ी भूल थी।

नेहरू कश्मीर के मुद्दे को कश्मीर ले जाकर बड़ी भूल की थी।

22 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तान के कबायली हमलावरों ने कश्मीर पर आक्रमण कर दिया था। शेख अब्दुल्लाह की सलाह पर नेहरू खुद कश्मीर का मुद्दा यूएन में लेकर चले गये, जबकि उस समय भारतीय सेना काबलियों के वेश में घुसी पाकिस्तानी सेना को  कश्मीर के 2/3 हिस्से तक खदेड़ चुकी थी , सिर्फ 1/3 में और हटाना था।  इस तरह नेहरू ने 1/3 अर्थात पी ओ  के  को पाकिस्तान को गिफ्ट कार दिया। 

शेख अब्दुल्लाह की सलाह पर कश्मीर का मुद्दा यूएन में ले जाने का फायदा पाकिस्तान को मिला और यह मुद्दा अभी तक शांत नहीं हो पाया है। 

 वर्ष 1948 में जब भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध हुआ तो भारतीय सेना पाकिस्तानियों को खदेडऩे में सफल रही थी और भारतीय सेना ने बलूचिस्तान पर कब्जा कर लिया था। इतना ही नहीं, युद्ध में पाकिस्तान को करारी हार मिली थी और बलूचिस्तान के सभी कबायली समूहों की संसद (जिरगा) ने प्रस्ताव पास किया था कि वे भारत के साथ रहना चाहते हैं, लेकिन तभी अचानक पंडित नेहरू ने सीजफायर का एलान कर दिया, क्योंकि वे शांति का माहौल चाहते थे।  

कळात के खान ने भारत में विलय का लिखी दस्तखत सही प्रस्ताव भारत को दिया था पर नेहरू ने उसे भी ठुकरा दिया था इस की चर्चा मैंने अलग से अपने एक आर्टिकल में किया है।

सुरक्षा परिषद के लिये चीन का समर्थन जिसके कारण चीन अभी भी समस्या बना हुए हैं।

अमेरिका कम्युनिस्ट चीन की बजाय 1950 में प्रजातांत्रिक भारत को स्थायी सदस्य बनाना चाहता था लेकिन, जवाहर लाल नेहरू ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। इसके पीछे उनके द्वारा यह तर्क दिया गया कि भारत को अगर चीन की जगह स्थायी सदस्य बनाया जाता है तो इससे इस क्षेत्र में एक प्रतिस्पर्धा का माहौल बन जाएगा, जो कि शांति के लिए घातक साबित होगा। भारत का सुरक्षा परिषद की स्थायी सीट को ठुकराना इतिहास की बड़ी भूलों में गिना जाता है। भारत को ना जाने कितनी बार इसकी वजह से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मुंह की खानी पड़ी है। जिस चीन को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट दिलाने के लिए भारत ने 25 वर्षों तक उसका साथ दिया, वही चीन अब तक कुल 4 बार भारत द्वारा मसूद अजहर को वैश्विक आतंकवादी घोषित करवाने की कोशिशों में अड़ंगा लगा चुका है।

दरअसल, नेहरू चीन की समाजवादी नीतियों से काफी प्रभावित थे, और चीन के साथ भारत के अच्छे रिश्तों की वकालत करते थे। उन्होंने भारतीयों और चीनियों के बीच एक सकारात्मक संवाद स्थापित करने के लिए ‘हिंदी-चीनी भाई-भाईÓ का नारा भी दिया, लेकिन बदले में चीन ने वर्ष 1962 में भारत पर युद्ध थोप दिया। चीन ने भारत की नाक के नीचे से तिब्बत को भी हड़प लिया और आज वह भारत के राज्य जम्मू-कश्मीर के एक बड़े हिस्से पर अवैध रूप से कब्जा किए बैठा है। इतना ही नहीं, भारत के राज्य अरुणाचल प्रदेश पर भी चीन अपना दावा जताता रहा है। यदि आज भारत के पास सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट होती तो अब तक शायद कश्मीर मुद्दे का हल हो चुका होता। साथ ही, भारत मसूद अजहर जैसे आतंकियों पर भी नकेल कस चुका होता।

कहते हैं, भीम राव आंबेडकर ने नेहरू की विदेश नीति पर सवाल उठाए थे। उन्होंने कहा था– जवाहर लाल नेहरू चीन के लिए कैंपेन कर रहे है, समझना मुश्किल है कि वो भारत के लिए काम करते हैं या चीन के लिए। भारत को सुरक्षा परिषद का स्थायी मेम्बर बनने का न्योता मिला पर नेहरू चीन के लिए कैंपेन कर रहे हैं।

1950 में जो प्रस्ताव नेहरू को अमेरिका ने दिया था उसी प्रका का प्रस्ताव नेहरू को रूस ने 1955 में नेहरू को दिया था परन्तु चीन परास्त नेहरू ने उसे भी ठुकरा दिया।  इसकी चर्चा मैंने कल के 24 जून 2020 के सम्पादकीय में और आर्टिकल्स में की है।

रूस के समर्थन के बावजूद 

नेहरू की गलती के कारण भारत नहीं बन सकेगा हृस्ष्ट का स्थायी सदस्य?