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सुनिए (नज़्म)

8 August 2020

सवाल किया है तो जवाब भी सुनिए दबी आवाज़ों का इंक़लाब भी सुनिए सिर्फ सिखाते ही मत रहिए बच्चों को उन की निगाहों का वाब भी सुनिए कितना रोक सकेंगे नदी को बाँधों में बलखाती पानी का रूबाब भी सुनिए सब कुछ लिख डाला अमीरों के नाम एक दिन गरीब का अभाव भी सुनिए मर्द होके हर बात पे परेशाँ हो जाते हैं. सहमी हुई औरत का दबाव भी सुनिए किस तरह से तुमको अच्छा सुनाए हम से कभी तो कुछ खराब भी सुनिए सलिल सरोज कार्यकारी अधिकारी लोक सभा चिवालय संसद भवन,नई दिल्ली 9968638267

हार मानूँगा नहीं

ये हार एक विराम है ,
जीवन महासंग्राम है
तिल तिल जिऊंगा ,
पर कभी मैं भीख मांगूंगा नहीं
,
हार मानूंगा नहीं ,
स्वाभिमान ही समान है ,
नहीं जीवन मरण समान है ,
हर पल रखूंगा पक्ष सच का ,
रार ठानूँगा नहीं ,
हार मानूंगा नहीं ,
माना कठिन है रास्ते ,
पर सर्वहित के वास्ते ,
हर दिन प्रयत्न करता रहूंगा ,
चुपचाप बैठूंगा नहीं ,
हार मानूंगा नहीं ,
चाहे मुझे संताप दो ,
चाहे मुझे आघात दो ,
कुछ भी करो कर्तव्य पथ से ,
किंतु भागूँगा नहीं ,
हार मानूंगा नहीं ,

तम से निकल प्रकाश में ,
यूं खुले आकाश में ,
अन्याय के भय से कभी ,
मैं ध्येय त्यागूंगा नहीं ,
हार मानूँगा नहीं ,
यह हार एक विराम है ,
जीवन महासंग्राम है ,
तिल तिल जिऊंगा पर कभी ,
मैं भीख माँगूँगा नही ,

हार मानूंगा नहीं ,

हनुमानसिंह राठोड़
बरसलपुर
बीकानेर राजस्थान*
8696536821

एक शाम निदा फाजली के साथ

रमेश नैयर
वरिष्ठ पत्रकार

निदा फाजली से एक बार जिसकी कुछघंटों की आत्मीय मुलाकात हो गई, उसेबहुत जल्द वे बहुत अपने लगने लगते। जोउनके कलाम को पढऩे लगता, उनकामुरीद होता जाता। उनके संभाषण मेंस[1]मोहन होता, और लेखन में मन कीखिड़कियां खोलते जाने का हुनर। मुझेएक बार दो ढाई घंटों की उनसे रुबरुमुलाकात करने और बातचीत का अवसर मिला। उन दिनों मैंदिल्ली और मुंबई से प्रकाशित एक साप्ताहिक अखबार काकार्यकारी संपादक था। मुख्यालय तो दिल्ली में था। परंतु महीनेमें एकाध बार मुंबई जाने का अवसर मिलता रहता था। निदासाहब लोकप्रियता के कई शिखर पार कर चुके थे। उन दिनोंप्रबुद्ध पत्रकार राहुल देव जनसाा के मुंबई संस्करण केसंपादक थे। थोड़ा परिचय उनसे था। मेरे अनुरोध पर राहुल देवजी जनाब निदा फाजली को साथ लेकर उस होटल के कमरे मेंपहुंच गए, जहां मुझे ठहराया गया था। निदा साहब के साथ होनेसे औपचारिक बातचीत बहुत जल्दी पिघलकर आत्मीय परिचयमें ढल गई। ऐसा लगा ही नहीं कि वह हमारी पहली मुलाकातथी। शायद राहुल जी की उनसे बेतकल्लुफी की वजह से उनकीमकबूल शायरी की परतें खुलती गईं। पहली नज़्म जो उन्होंनेसुनाई, कुछ इस तरह थी:

ये शोहरत भी ले लो, ये दौलत भी ले लो।
चाहो तो ले लो मुझसे मेरी ये जवानी…
मगर मुझको लौटा दो मेरा वो बचपन,
वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी।

संभव है मेरी स्मृति में वो यादगार नज़्म कुछ इसी तरह दर्ज
हो गई हो, और वास्तविक शद कुछ इससे अलग हों। फिर कुछ गज़लें,
कुछ नज़्म और कुछ दोहे भी हम दोनों के अनुरोध पर सुनाए। निदा
साहब का पढऩे का अंदाज ऐसा था कि मैं उस दौरान समोहित सा
बैठा उन्हें सुनता रहा। उनकी चुनिंदा गज़ले मैं पत्र-पत्रिकाओं और उनके
काव्य संकलनों में पढ़ भी चुका था, परंतु उनसे रूबरू सुनने का आनंद
ही कुछ और था। उनमें से जो याद रह गईं अथवा जिनको मैंने मोबाइल
में रिकॉर्ड कर लिया था वे यहां प्रस्तुत कर रहा हूँ:

अपनी मर्जी से कहाँ अपने सफर के हम हैं
रुख हवाओं का जिधर का है, उधर के हम हैं ।
पहले हर चीज थी अपनी मगर अब लगता है
अपने ही घर में, किसी दूसरे घर के हम हैं ।

मन बैरागी, तन अनुरागी, कदम-कदम दुश्वारी है
जीवन जीना सहल न जानो, बहुत बड़ी फनकारी है
औरों जैसे होकर भी हम बाइज्जत हैं बस्ती में
कुछ लोगों का सीधापन है, कुछ अपनी अय्यारी है
उनकी एक लोकप्रिय गज़ल का मुखड़ा है:
दुनिया जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है।
मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है।।

दोहों की जिस परंपरा को भारतीय हिंदी कवियों ने गत चार-पांच
दशकों में लगभग तिलाजंली दे रखी है उसे निदा साहब ने ठेठ हिंदुस्तानी
में पुनप्र्रतिष्ठित किया है। उनके दोहों को सुनना छ:-सात सौ वर्षों की
लगभग विस्मृत कर दी गई काव्य की उस विधा का स्मरण कराता है,
जो खेत-खलिहान, चूल्हे-चैके और आपसी बातचीत से लेकर विद्वत
मंडली तक में समान रूप से सुनी और सराही जाती थी। बहुतों को वे
सब याद रहते थे। केवल दो पंक्तियों में ज्ञान-विज्ञान और जीवन-दर्शन
को समो देने की वह विधा निदा फाजली के अलावा भारत और
पाकिस्तान के कुछ ही कवियों के कलाम में आज भी महकती है। निदा
साहब को दोहों की फरमाइश पर कुछ प्रसन्नता भी हुई। लगा सारे दोहे
उन्हें कंठस्थ हैं, योंकि न तो उन्होंने अपनी नोट बुक को छुआ और न
ही किसी संकलन के पन्ने पलटे। पहला दोहा जो उन्होंने सुनाया, वह
था:

वो सूफी का कौल हो या पंडित का ज्ञान।
जितनी बीते आप पर उतना ही सच मान।।
इसके साथ ही दोहे सुनाने का सिलसिला शुरू हो गया। कुछेक ने
विशेष प्रभावित किया। यथ:
सातों दिन भगवान के, या मंगल या पीर।
जिस दिन सोए देर तक, भूखा रहे फकीर।।
सीधा-साधा डाकिंया, जादू करे महान।
एक ही थैले में भरे, आंसू और मुस्कान।।

सब की पूजा एक सी, अलग अलग हर रीत
मस्जिद जाये मौलवी, कोयल गाये गीत
पूजा घर में मूर्ती, मीरां के संग श्याम
जितनी जिसकी चाकरी, उतने उसके दाम
सीता, रावण, राम का, करें विंभाजन लोग
एक ही तन में देखिये, तीनों का संजोग
मिट्टी से माटी मिले, खो के सभीं निशान
किस में कितना कौन है, कैसे हो पहचान

निदा फाजली पाकिस्तान की यात्रा से लौटे तो उन्होंने वह बेबाक
नज्म़ लिखी जो आज के हालात में अधिक प्रासंगिक है:
रहमान की कुदरत हो या भगवान की मूरत
हर खेल का मैदान यहाँ भी है वहाँ भी
हिंदू भी मज़े में है, मुसलमाँ भी मजे में

इन्सान परेशान यहाँ भी है वहाँ भी
उठता है दिलोंजाँ से धुआँ दोनों तरफ ही
ये मीर का दीवान यहाँ भी है वहाँ भी

अब तो बहुज्ञातय तथ्य है कि देश के विभाजन के साथ निदा
फाजली के माता-पिता ने पाकिस्तान जाने का फैसला कर लिया। परंतु
निदा साहब ने उस वतन को छोडऩे से इंकार कर दिया जहां उन्होंन जन्म
लिया था, और जहां की माटी में उनके पुरखे दफन थे। वे भारत में ही
बने रहे। परंतु अबू को बड़ी शिद्दत से याद करते रहे। मैंने मां पर तो
अनेक भाव-विहल कर देने वाली हिंदी-उर्दू और अंग्रेजी की कई
कवितायें पढ़ी थीं, पर पिता पर लिखी गई निदा साहब की यह नज़्म
अविस्मरणीय बनी रहेगी।

तुम्हारी कब्र पर मैं फातेहा पढऩे नहीं आयाए
मुझे मालूम था तुम मर नहीं सकतेए
तुम्हारी मौत की सच्ची खबर जिसने उड़ाई थी
वो झूठा था।
वो तुम कब थे
कोई सूखा हुआ पाा हवा से हिल के टूटा था।
मेरी आंखें तुहारे मंजरों में कैद हैं अब तक
मैं जो भी देखता हूँए सोचता हूं वो वही है
जो तुम्हारी नेकनामी और बदनामी की दुनिया थी।
कहीं कुछ भी नहीं बदला
तुहारे हाथ मेरी उंगलियों में सांस लेते हैं
मैं लिखने के लिए जब भी कलम.कागज उठाता हूं
तुहें बैठा हुआ मैं अपनी ही कुर्सी में पाता हूं
बदन में मेरे जितना भी लहू है
वो तुम्हारी लरजिशोंए नाकामियों के साथ बहता है
मेरी आवाज में छुपकर तुहारा जहां रहता है
मेरी बीमारियों में तुमए मेरी लाचारियों में तुम
तुम्हारी कब्र पर जिसने तुहारा नाम लिखा है
वो झूठा है
तुम्हारी कब्र में मैं दफन हूं
तुम मुझमें जिंदा होए
कभी फुरसत मिले तो फातेहा पढऩे चले आना।

यह नज़्म सुनाते-सुनाते निदा साहब बहुत भावुक हो गये, उनकी
आंखें छलछला आईं। गला रूंध गया। उसके बाद उनसे कुछ सुनाने का
अनुरोध करने का साहस न मुझमें हुआ, न राहुल जी में। अंतस में एक
कसक और उद्वेलन के साथ वह यादगार शाम सिमट गई। लेकिन याद
बार-बार आती है। उनकी नज़्म का सर्वाधिक लोकप्रिय शेर जो असर
हर जगह दोहराया जाता है और एक फिल्मी गीत को भी अमरत्व दे गया,
उसी से उस बड़े इंसान से छोटी सी मुलाकात का समापन:

कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीं तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता।