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डूब रहा है ‘नमामि गंगे’, ‘पवित्र’ नदी को जहरीले कचरे की बाढ़ से मुक्ति नहीं

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घाट किनारे जैसे-जैसे नाव आगे बढ़ती है, नालों से तमाम गंदा पानी गंगा में मिलते हुए देखा जा सकता है. उसी गंगा नदी में जिसे मोक्षदायिनी बताया जाता है. नालों से प्लास्टिक, कंकाल, कूड़ा-करकट, ऐसी कौन सी गंदगी नहीं है जो गंगा में आकर नहीं मिलती. इस जहरीले पानी से उठने वाली दुर्गन्ध जहां बर्दाश्त की सीमा से बाहर है, वहीं इसके साथ आने वाले रोगाणुओं का खतरा भी कम छोटा नहीं जो मानव और पशुओं के मल-मूत्र के जरिए साथ आते हैं.

प्रयोगशालाओं के परीक्षण में पाया गया है कि वाराणसी के घाटों पर गंगा के पानी में बैक्टीरिया दूषण (Contamination) चार साल पहले की तुलना में बढ़ गया है. साल 2014 में नरेंद्र मोदी सरकार ने गंगा नदी को स्वच्छ बनाने के लिए महत्वाकांक्षी ‘नमामि गंगे’  प्रोजेक्ट की शुरुआत की थी. इंडिया टुडे को आरटीआई के जरिए गंगा पुनरूद्धार मंत्रालय से मिले जवाब के मुताबिक घाटों के किनारे गंगा के पानी में विष्ठा कोलिफॉर्म बैक्टीरिया का दूषण 58 फीसदी बढ़ गया है.

1000 मिलीलीटर पानी में 2,500 से ज्यादा कोलिफॉर्म माइक्रोऑर्गेनिज्म्स की मौजूदगी इसे नहाने के लिए असुरक्षित बना देती है. वाराणसी के मालवीय ब्रिज से लिए गए गंगा के पानी के नमूने में बैक्टीरिया दूषण आधिकारिक मानकों से 20 गुना अधिक पाया गया.

RTI से दिए जवाब में सरकार ने माना है कि साल 2017 में ब्रिज के पास से लिए गए पानी के नमूने में विष्ठा कोलिफॉर्म बैक्टीरिया प्रति 100 मिलीलीटर में 49,000 पाए गए, जबकि 2014 में यहीं आकंड़ा प्रति 100 मिलीलीटर 31,000 का था. विशेषज्ञों के मुताबिक विष्ठा कोलिफॉर्म बैक्टीरिया सीवेज दूषण को दर्शाता है. साथ ही ये पानी में अन्य रोगजनक सूक्ष्मजीवियों की संभावित मौजूदगी का भी संकेतक है.

मंत्रालय ने आरटीआई के जवाब में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के डेटा का हवाला देते हुए बताया- ‘वाराणसी में गंगा नदी में मोटे तौर पर पांच नाले मिलते हैं जिनसे हर दिन दस लाख लीटर से ज्यादा बहाव आता है.’

मोक्षनगरी माने जाने वाले इस प्राचीन शहर के घाटों पर मरे हुए जलजन्तु देखना भी त्रासदी से कम नहीं. इनकी मौत का कारण ये है कि गंगा के पानी में ऑक्सीजन कम होती जा रही है. इसका स्पष्ट सबूत मंत्रालय के जवाब में है जिसमें माना गया है कि अस्सी घाट पर पानी में घुली ऑक्सीजन की मात्रा 2014 में 8.6 मिलीग्राम प्रति लीटर थी जो 2017 में घटकर 7.5 मिलीग्राम प्रति लीटर रह गई. ये 5 मिलीग्राम प्रति लीटर मानक के बिल्कुल करीब आ गई है.

अस्सी घाट पर बैक्टीरिया दूषण में पिछले तीन साल में कोई बदलाव नहीं आया है. 2014 की तरह ही ये 2017 में भी 2,200 प्रति 100 मिलीलीटर के स्तर पर बना हुआ है. इंडिया टुडे की ओर से नमामी गंगे के स्टेट्स चेक में 2,500 किलोमीटर लंबी पवित्र नदी कई जगहों पर प्रदूषण के भंवर में घिरी दिखाई दी. वाराणसी के एक स्थानीय नागरिक का कहना है कि ‘ये नाले की पूजा किए जाने जैसा है. ये प्रधानमंत्री का क्षेत्र है. लेकिन यहां ऐसा कुछ नहीं जिससे कि सफाई का आभास होता हो.’

गंगा बंगाल की खाड़ी में मिलने से पहले 100 शहर-कस्बों और हज़ारों गांवों से गुजरती है. सरकार के मुताबिक गंगा में अब भी उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल जैसे 5 राज्यों में हर दिन 144 नालों का कचरे वाला पानी आकर मिलता है.

सरकारी जवाब में कहा गया है कि आधिकारिक संस्थाएं सिर्फ 10 नए नालों को बंद करने में कामयाब हुई है, नहीं तो इनका गंदा पानी भी गंगा में ही आकर मिलता. कानपुर जिसे कभी पूरब का मैनचेस्टर कहा जाता था, वहां गंगा नदी के तट पर काली-स्लेटी गाद इंडिया टुडे के कैमरे में कैद हुई. कानपुर के पड़ोस में स्थित परमट में भी नालों के गंदे पानी को गंगा में मिलते देखा जा सकता है.

एक स्थानीय नागरिक अमित दीक्षित का कहना है, ‘गंगा को सिर्फ सरकार की ओर से की गई पहलों के आधार पर साफ नहीं किया जा सकता. लोगों को भी जागरूक होना होगा और गंगा के सफाई अभियान में सक्रिय रूप से हिस्सा लेना होगा.’ कानपुर में गंगा नदी के प्रदूषण के लिए मोटे तौर पर चमड़े के कारखानों से निकलने वाला कचरा जिम्मेदार है. पिछले कुछ वर्ष में अधिकारियों ने जाजमऊ क्षेत्र में कई चमड़ा फैक्टरियों को बंद कराया है. कई चमड़ा यूनिट्स को अन्यत्र शिफ्ट किया गया है. लेकिन कई चमड़ा कारखाने अब भी क्षेत्र में चालू हैं.

शहर के म्युनिसिपल कमिश्नर संतोष कुमार शर्मा ने इंडिया टुडे को बताया, ‘कानपुर में 4000 चमड़ा कारखाने थे, इनमें से अब घट कर 50 फीसदी ही रह गए हैं. कानपुर में गंगा और सीवेज सिस्टम पर 500 करोड़ रुपए खर्च किए जा चुके हैं.’ बिहार के पटना में गंगा नदी में गटर का पानी बजबजाते देखा जा सकता है. नदी के घाटों पर भी कचरे के ढेर लगे हैं.

पश्चिम बंगाल में गंगा नदी के आखिरी पड़ाव में दूषण का स्तर कहीं ज्यादा है. इस राज्य में गंगा नदी में 222 बड़े-छोटे नाले आकर गिरते हैं. जादवपुर यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर और समुद्री अध्ययन निदेशक डॉ सुगाता हाजरा का कहना है, ‘बंगाल के उत्तरी हिस्से में गंगा का सबसे प्रदूषित हिस्सा है. यहां कोलिफॉर्म बैक्टीरिया प्रति लीटर 160,000 से ज्यादा है.’ डॉ हाजरा ने आगाह किया कि बिना ट्रीट किया गया सीवेज अब भी बड़ी मात्रा में हर दिन गंगा से मिल रहा है. इसलिए नदी का पानी यहां ना तो पीने और ना ही नहाने योग्य रह गया है क्योंकि इसमें भारी धातु दूषण है.

नमामि गंगे को जून 2014 में लॉन्च किया गया था. इसके लिए दिसंबर 2000 तक 20,000 करोड़ रुपए का बजटीय आवंटन रखा गया था. 2011 से अब तक केंद्र सरकार की ओर 8,454 करोड़ रुपया जारी किया जा चुका है. सरकारी रिकार्ड्स बताते हैं कि नदी से प्रदूषक तत्वों को हटाने के लिए ‘नेशनल मिशन फॉर क्लीन गंगा’ की ओर से 8,454 करोड़ रुपए जारी किए गए हैं. जल संसाधन और गंगा पुनरूद्धार मंत्रालय ने अपनी टिप्पणियों में नदी को समयबद्ध ढंग से साफ करने की दिशा में शुरू की गई कई पहलों का हवाला दिया है.

मंत्रालय का कहना है कि नए सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के आधार पर वाराणसी में तैयार किए जा रहे हैं. ये भारत में अपनी तरह का पहला कदम है. 362 एमएलडी सीवेज को ट्रीट करने की क्षमता वाले दो एसटीपी अक्टूबर तक स्थापित हो जाएंगे. एक और प्लांट अगले साल मार्च से पहले तैयार हो जाएगा.

मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों का मानना है कि नए एसटीपी के काम करना शुरू करने पर प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र में गंगा के प्रदूषण से काफी हद तक निपटा जा सकेगा. जनवरी 2016 में केंद्र सरकार ने सीवेज ट्रीटमेंट के लिए 100 फीसदी केंद्रीय फंडिंग के साथ हाइब्रिड अन्युइटी-पीपीपी मॉडल लॉन्च किया. इस मॉडल के तहत सीवेज ट्रीटमेंट प्लॉन्ट के विकास, ऑपरेशन और रखरखाव का जिम्मा स्थानीय स्तर पर सबसे अधिक बोली लगाने वाले को दिया जाता है. इस मॉडल की सबसे खास बात ये है कि सारा भुगतान एसटीपी के प्रदर्शन के आधार से ही जुड़ा रहता है.

मंत्रालय के मुताबिक, अधिकारी 11 शहरों में नदी के किनारे गंगा वाटिका विकसित कर रहे हैं जिससे कि पर्यावरण और साफ-सफाई को लेकर जागरूकता लाई जा सके.

अधिकारियों के मुताबिक इन वाटिकाओं में गंगा पर फिल्में और नदी से जुड़ी औषधीय जड़ी बूटियों को दिखाया जाएगा. उत्तर प्रदेश के अनूपशहर में 76 करोड़ रुपए की लागत से बनाया जा रहा सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट अक्टूबर तक पूरा हो जाएगा. अधिकारियों का कहना है कि कई और एसटीपी भी निर्माणाधीन हैं.

घाट किनारे जैसे जैसे नाव आगे बढ़ती है, नालों से तमाम गंदा पानी गंगा  में मिलते हुए देखा जा सकता है. उसी गंगा नदी में जिसे मोक्षदायिनी बताया जाता है. नालों से प्लास्टिक, कंकाल, कूड़ा-करकट, ऐसी कौन सी गंदगी नहीं है जो गंगा में आकर नहीं मिलती. इस जहरीले पानी से उठने वाली दुर्गन्ध जहां बर्दाश्त की सीमा से बाहर है वहीं इसके साथ आने वाले रोगाणुओं का खतरा भी कम छोटा नहीं जो मानव और पशुओं के मल-मूत्र के जरिए साथ आते हैं.

प्रयोगशालाओं के परीक्षण में पाया गया है कि वाराणसी के घाटों पर गंगा के पानी में बैक्टीरिया दूषण (Contamination)  चार साल पहले की तुलना में बढ़ गया है. 2014 में नरेंद्र मोदी सरकार ने गंगा नदी को स्वच्छ बनाने के लिए महत्वाकांक्षी ‘नमामि गंगे’  प्रोजेक्ट की शुरुआत की थी. इंडिया टुडे को आरटीआई के जरिए गंगा पुनरूद्धार मंत्रालय से मिले जवाब के मुताबिक घाटों के किनारे गंगा के पानी में विष्ठा कोलिफॉर्म बैक्टीरिया का दूषण 58 फीसदी बढ़ गया है. 1000 मिलीलीटर पानी में 2,500 से ज्यादा कोलिफॉर्म माइक्रोऑर्गेनिज्म्स की मौजूदगी इसे नहाने के लिए असुरक्षित बना देती है. वाराणसी के मालवीय ब्रिज से लिए गए गंगा के पानी के नमूने में बैक्टीरिया दूषण आधिकारिक मानकों से 20 गुणा अधिक पाया गया.

आरटीआई से दिए जवाब में सरकार ने माना है कि 2017 में ब्रिज के पास से लिए गए पानी के नमूने में विष्ठा कोलिफॉर्म बैक्टीरिया प्रति 100 मिलीलीटर में 49,000 पाए गए. जबकि 2014 में यहीं आकंड़ा प्रति 100 मिलीलीटर 31,000 का था. विशेषज्ञों के मुताबिक विष्ठा कोलिफॉर्म बैक्टीरिया सीवेज दूषण को दर्शाता है. साथ ही ये पानी में अन्य रोगजनक सूक्ष्मजीवियों की संभावित मौजूदगी का भी संकेतक है.

मंत्रालय ने आरटीआई के जवाब में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के डेटा का हवाला देते हुए बताया- ‘वाराणसी में गंगा नदी में मोटे तौर पर पांच नाले मिलते हैं जिनसे हर दिन दस लाख लीटर से ज्यादा बहाव आता है.’

मोक्षनगरी माने जाने वाले इस प्राचीन शहर के घाटों पर मरे हुए जलजन्तु देखना भी त्रासदी से कम नहीं. इनकी मौत का कारण ये है कि गंगा के पानी में ऑक्सीजन कम होती जा रही है. इसका स्पष्ट सबूत मंत्रालय के जवाब में है जिसमें माना गया है कि अस्सी घाट पर पानी में घुली ऑक्सीजन की मात्रा 2014 में 8.6 मिलीग्राम प्रति लीटर थी जो 2017 में घटकर 7.5 मिलीग्राम प्रति लीटर रह गई. ये 5 मिलीग्राम प्रति लीटर मानक के बिल्कुल करीब आ गई है.

अस्सी घाट पर बैक्टीरिया दूषण में पिछले तीन साल में कोई बदलाव नहीं आया है. 2014 की तरह ही ये 2017 में भी 2,200 प्रति 100 मिलीलीटर के स्तर पर बना हुआ है. इंडिया टुडे की ओर से नमामी गंगे के स्टेट्स चेक में 2,500 किलोमीटर लंबी पवित्र नदी कई जगहों पर प्रदूषण के भंवर में घिरी दिखाई दी. वाराणसी के एक स्थानीय नागरिक का कहना है कि ‘ये नाले की पूजा किए जाने जैसा है. ये प्रधानमंत्री का क्षेत्र है. लेकिन यहां ऐसा कुछ नहीं जिससे कि सफाई का आभास होता हो.’

गंगा बंगाल की खाड़ी में मिलने से पहले 100 शहर-कस्बों और हज़ारों गांवों से गुजरती है. सरकार के मुताबिक गंगा में अब भी उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल जैसे 5 राज्यों में हर दिन 144 नालों का कचरे वाला पानी आकर मिलता है.

सरकारी जवाब में कहा गया है कि आधिकारिक संस्थाएं सिर्फ 10 नए नालों को बंद करने में कामयाब हुई है, नहीं तो इनका गंदा पानी भी गंगा में ही आकर मिलता. कानपुर जिसे कभी पूर्व का मानचेस्टर कहा जाता था, वहां गंगा नदी के तट पर काली-स्लेटी गाद इंडिया टुडे के कैमरे में कैद हुई. कानपुर के पड़ोस में स्थित परमत में भी नालों के गंदे पानी को गंगा में मिलते देखा जा सकता है.

एक स्थानीय नागरिक अमित दीक्षित का कहना है, ‘गंगा को सिर्फ सरकार की ओर से की गई पहलों के आधार पर साफ नहीं किया जा सकता. लोगों को भी जागरूक होना होगा और गंगा के सफाई अभियान में सक्रिय रूप से हिस्सा लेना होगा.’ कानपुर में गंगा नदी के प्रदूषण के लिए मोटे तौर पर चमड़े के कारखानों से निकलने वाला कचरा जिम्मेदार है. पिछले कुछ वर्ष में अधिकारियों ने जाजमऊ क्षेत्र में कई चमड़ा फैक्टरियों को बंद कराया है. कई चमड़ा यूनिट्स को अन्यत्र शिफ्ट किया गया है. लेकिन कई चमड़ा कारखाने अब भी क्षेत्र में चालू हैं.

शहर के म्युनिसिपल कमिश्नर संतोष कुमार शर्मा ने इंडिया टुडे को बताया, ‘कानपुर में 4000 चमड़ा कारखाने थे, इनमें से अब घट कर 50 फीसदी ही रह गए हैं. कानपुर में गंगा और सीवेज सिस्टम पर 500 करोड़ रुपए खर्च किए जा चुके हैं.’ बिहार के पटना में गंगा नदी में गटर का पानी बजबजाते देखा जा सकता है. नदी के घाटों पर भी कचरे के ढेर लगे हैं.

पश्चिम बंगाल में गंगा नदी के आखिरी पड़ाव में दूषण का स्तर कहीं ज्यादा है. इस राज्य में गंगा नदी में 222 बड़े-छोटे नाले आकर गिरते हैं. जादवपुर यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर और समुद्री अध्ययन निदेशक डॉ सुगाता हाजरा का कहना है, ‘बंगाल के उत्तरी हिस्से में गंगा का सबसे प्रदूषित हिस्सा है. यहां कोलिफॉर्म बैक्टीरिया प्रति लीटर 160,000 से ज्यादा है.’ डॉ हाजरा ने आगाह किया कि बिना ट्रीट किया गया सीवेज अब भी बड़ी मात्रा में हर दिन गंगा से मिल रहा है. इसलिए नदी का पानी यहां ना तो पीने और ना ही नहाने योग्य रह गया है क्योंकि इसमें भारी धातु दूषण है.

नमामि गंगे को जून 2014 में लॉन्च किया गया था. इसके लिए दिसंबर 2000 तक 20,000 करोड़ रुपए का बजटीय आवंटन रखा गया था. 2011 से अब तक केंद्र सरकार की ओर 8,454 करोड़ रुपया जारी किया जा चुका है. सरकारी रिकार्ड्स बताते हैं कि नदी से प्रदूषक तत्वों को हटाने के लिए ‘नेशनल मिशन फॉर क्लीन गंगा’ की ओर से 8,454 करोड़ रुपए जारी किए गए हैं. जल संसाधन और गंगा पुनरूद्धार मंत्रालय ने अपनी टिप्पणियों में नदी को समयबद्ध ढंग से साफ करने की दिशा में शुरू की गई कई पहलों का हवाला दिया है.

मंत्रालय का कहना है कि नए सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के आधार पर वाराणसी में तैयार किए जा रहे हैं. ये भारत में अपनी तरह का पहला कदम है. 362 एमएलडी सीवेज को ट्रीट करने की क्षमता वाले दो एसटीपी अक्टूबर तक स्थापित हो जाएंगे. एक और प्लांट अगले साल मार्च से पहले तैयार हो जाएगा.

मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों का मानना है कि नए एसटीपी के काम करना शुरू करने पर प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र में गंगा के प्रदुषण से काफी हद तक निपटा जा सकेगा. जनवरी 2016 में केंद्र सरकार ने सीवेज ट्रीटमेंट के लिए 100 फीसदी केंद्रीय फंडिंग के साथ हाइब्रिड अन्युइटी-पीपीपी मॉडल लॉन्च किया. इस मॉडल के तहत सीवेज ट्रीटमेंट प्लॉन्ट के विकास, ऑपरेशन और रखरखाव का जिम्मा स्थानीय स्तर पर सबसे अधिक बोली लगाने वाले को दिया जाता है. इस मॉडल की सबसे खास बात ये है कि सारा भुगतान एसटीपी के प्रदर्शन के आधार से ही जुड़ा रहता है.

मंत्रालय के मुताबिक, अधिकारी 11 शहरों में नदी के किनारे गंगा वाटिका विकसित कर रहे हैं जिससे कि पर्यावरण और साफ-सफाई को लेकर जागरूकता लाई जा सके.

अधिकारियों के मुताबिक इन वाटिकाओं में गंगा पर फिल्में और नदी से जुड़ी औषधीय जड़ी बूटियों को दिखाया जाएगा. उत्तर प्रदेश के अनूपशहर में 76 करोड़ रुपए की लागत से बनाया जा रहा सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट अक्टूबर तक पूरा हो जाएगा. अधिकारियों का कहना है कि कई और एसटीपी भी निर्माणाधीन हैं.