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कड़की में धान गीला, झारखंड में फिट बैठ रहा यह मुहावरा

कड़की में आटा गीला मुहावरा तो अब पुराना हो गया है। नई शासन व्यवस्था में कड़की में धान गीला सटीक बैठ रहा है। सरकार कड़की में चल रही है और हजारों बार इसे दोहराया जा चुका है। ऐसे में धान खरीदने के पैसे कहां से आएंगे। धान सरकार नहीं खरीदेगी तो मौसेरे भाइयों के लिए इससे बेहतर मौका क्या मिलेगा। सो, लग गए हैं धान कब्जाने में। किसानों के घर पहुंचकर धान उठा ले रहे हैं और जो सस्ते में धान नहीं दे रहे, उनके धान को गीला करार दे रहे हैं। देखते ही देखते गीला धान वाले किसानों की संख्या बढ़ती जा रही है। अब सरकार की कड़की किसानों तक पहुंचने लगी है। श्वेत पत्र में खाली खजाने के जिक्र के साथ यह बात भी की गई होती तो तय मानिए किसान धान में ध्यान ही नहीं लगाते। उतना ही उगाते जितना खा पाते।

हुजूर कितने भी ताकतवर क्यों ना हो जाएं, मैडम ताना देने से बाज नहीं आनेवाली। खुले मंच से कठघरे में देवर को उतार देती हैं। अब तो घर में दो-दो देवर पहुंच चुके हैं। मैडम ने शुरुआत तो पत्थरों से की लेकिन अभी बालू के घाटों पर मोर्चा खोला है। इनके सवालों का कोई जवाब इनके पास नहीं, सो चुप्पी साधे रहते हैं। इसके बावजूद हुजूर की एक खासियत है कि वे कभी-कभी भाभी की बातों को तवज्जो देकर उनका क्रोध भी कम कर देते हैं। बीमार लोगों की मदद और अन्य समस्याओं का निदान तो देखते-देखते हो जाता है लेकिन असली मसला तो खान, खदान है। पुरानी पसंद यही इलाका रहा है। इस इलाके में किसी और का वर्चस्व हो, यह कैसे बर्दाश्त हो सकता है। सो, मैडम ने कान फूंक दिए हैं। आगे गड़बड़ी की संभावना खत्म।