
उत्तर प्रदेश की न्याय व्यवस्था को झकझोर देने वाली एक गंभीर टिप्पणी में Allahabad High Court ने पारिवारिक अदालतों की कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े कर दिए हैं। अदालत ने कहा कि भरण-पोषण जैसे संवेदनशील मामलों में अनावश्यक देरी न केवल सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की अवहेलना है, बल्कि यह महिलाओं के गरिमामयी जीवन पर भी सीधा हमला है।
न्यायमूर्ति विनोद दिवाकर की एकल पीठ ने औरैया जिले के एक पति की पुनरीक्षण याचिका खारिज करते हुए स्पष्ट कहा कि अगर सुप्रीम कोर्ट के आदेशों को संविधान की शपथ लेकर बैठे न्यायाधीश ही नहीं मानेंगे, तो फिर आम जनता को कैसे न्याय मिलेगा?
“तारीख पर तारीख” से बर्बाद होती ज़िंदगियाँ
आज भी देश की लाखों महिलाएं अपने अधिकार के लिए कोर्ट की दहलीज पर वर्षों से भटक रही हैं। भरण-पोषण जैसे मामलों में हर तारीख एक नए दर्द और इंतजार की कहानी लेकर आती है। हाईकोर्ट ने कहा कि इस देरी से न केवल पीड़ित पक्ष को आर्थिक और मानसिक पीड़ा होती है, बल्कि यह न्यायिक व्यवस्था की साख पर भी बट्टा लगाता है।
सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की खुलेआम अनदेखी
अदालत ने ‘रजनीश बनाम नेहा’ मामले का हवाला देते हुए बताया कि सुप्रीम कोर्ट ने साफ निर्देश दिए हैं कि भरण-पोषण तय करते समय पति-पत्नी दोनों की आय, संपत्ति और दायित्वों का हलफनामा लेना अनिवार्य है। लेकिन उत्तर प्रदेश की अनेक पारिवारिक अदालतें इस प्रक्रिया का पालन नहीं कर रही हैं।
कोर्ट ने टिप्पणी की, “यह समझ से परे है कि प्रशिक्षित न्यायिक अधिकारी सुप्रीम कोर्ट जैसे सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों की अनदेखी कैसे कर सकते हैं। यह केवल वैधानिक संकट नहीं, बल्कि नैतिक विफलता भी है।”
एक जज पर 2,000 तक मुकदमे: न्याय कैसे होगा?
हाईकोर्ट के आदेश पर जब राज्य के परिवार न्यायालयों में लंबित मामलों की रिपोर्ट मांगी गई, तो जो आंकड़े सामने आए वे चौंकाने वाले थे। प्रयागराज, आगरा, महराजगंज जैसे जिलों में एक-एक जज पर 1,500 से 2,000 तक मुकदमे लंबित हैं।
23 मई 2024 तक, 74 में से केवल 48 अदालतों ने ही रिपोर्ट सौंपी, जिनमें से कई ने केवल औपचारिक हलफनामे भरकर इतिश्री कर ली। कोर्ट ने कहा, “सुनवाई को बार-बार टालना केवल प्रक्रिया का कुप्रबंधन नहीं, बल्कि यह न्याय देने से इन्कार करने जैसा है।”
न्यायालय की नाराजगी: सिर्फ औपचारिकता नहीं चलेगी
कोर्ट ने मुख्य न्यायाधीश से आग्रह किया है कि पारिवारिक अदालतों की लेटलतीफी पर संज्ञान लें और कड़े कदम उठाएं। कोर्ट की सख्त टिप्पणी थी कि यदि निचली अदालतें संविधान के सर्वोच्च संरक्षक सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की परवाह नहीं करतीं, तो यह न्याय व्यवस्था को खोखला करने के समान है।
पारिवारिक न्यायालयों की स्थिति: न्याय के नाम पर मज़ाक?
देशभर की पारिवारिक अदालतें लंबे समय से त्वरित न्याय के लिए बनी थीं, लेकिन आज यह व्यवस्था खुद सवालों के घेरे में है। मामलों की अनावश्यक तारीखें, गवाहों की अनुपस्थिति, वकीलों की हड़ताल और न्यायाधीशों की कमी जैसे कारणों से पीड़ित महिलाएं वर्षों तक केवल तारीखों की नोटबुक भरती रह जाती हैं।
क्या कहती है न्यायिक जवाबदेही की कसौटी?
सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट की तल्ख टिप्पणियों से स्पष्ट है कि न्याय केवल आदेश देने से नहीं, बल्कि उन्हें लागू करने से होता है। लेकिन जब निचली अदालतें ही न्यायिक आदेशों को नजरअंदाज करें, तो यह सवाल उठना लाज़िमी है कि जवाबदेही तय कैसे होगी?
राज्य सरकार और न्यायिक सेवा आयोग की भूमिका पर उठे सवाल
क्या केवल न्यायपालिका दोषी है? राज्य सरकारों और न्यायिक सेवा आयोगों की भूमिका भी यहां कम नहीं है। लंबे समय तक खाली पड़े पद, नियुक्तियों में देरी और संसाधनों की कमी भी इस व्यवस्था की जड़ में हैं। जब तक सरकारें और न्यायिक संस्थान मिलकर इस समस्या पर गंभीर नहीं होंगे, तब तक “तारीख पर तारीख” का यह चक्र नहीं टूटेगा।
जनहित में उच्च न्यायालय की सख्ती जरूरी
इलाहाबाद हाईकोर्ट की इस गंभीर टिप्पणी को केवल एक याचिका के नजरिए से देखना भूल होगी। यह एक व्यापक संदेश है कि अगर न्यायिक निर्देशों का पालन नहीं किया गया, तो लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत – न्याय व्यवस्था – खुद ही कमजोर पड़ जाएगी।
इलाहाबाद हाईकोर्ट की यह सख्त टिप्पणी ना केवल न्यायपालिका के भीतर एक गूंज छोड़ गई है, बल्कि यह उम्मीद भी जगाई है कि अब शायद “तारीख पर तारीख” का दौर समाप्त होगा और हर पीड़ित महिला को समय पर न्याय मिलेगा। देश की न्यायिक प्रणाली को मजबूत करने के लिए इस प्रकार की जवाबदेही बेहद जरूरी है।