मान्यता है कि लगभग पांच हजार साल पहले राजा मोरध्वज ने पुरानी बस्ती इलाके में मां महामाया देवी की प्रतिमा की स्थापना की थी। 17वीं-18वीं शताब्दी में नागपुर के मराठा शासकों ने मंदिर का जीर्णोद्धार कर भव्यता प्रदान की। वर्तमान में यह भव्य मंदिर देश-विदेश में रह रहे भक्तों के लिए आस्था का केंद्र है। ‘महामाया मंदिर का वैभव’ पुस्तक के लेखक पंडित मनोज शुक्ला के अनुसार महामाया मंदिर और इसके ठीक सामने परिसर में ही निर्मित मां समलेश्वरी मंदिर के गर्भगृह के द्वार, तोरण, मंडल के मध्य के छह स्तंभ एक सीध में हैं, दीवारों पर बने नागगृह के आधार पर मंदिर को आठवीं-नौवीं शताब्दी में बना बताया गया है।
मंदिर इस तरह से बना है कि सूर्योदय पर सूर्यदेव की किरणें मां समलेश्वरी देवी के चरणों पर पड़ती हैं। सूर्यास्त पर किरणें मां महामाया देवी के चरणों पर पड़ती है छत्तीसगढ़ का यह एकमात्र मंदिर है जहां दो भैरव बाबा प्रवेश द्वार के अगल-बगल में विराजित हैं। बायीं ओर काल भैरवनाथ और दायीं ओर बटुक भैरवनाथ की प्रतिमा स्थापित है।
मान्यता है कि राजा मोरध्वज अपनी सेना के साथ खारुन नदी तट पर भ्रमण के लिए गए थे। स्नान के दौरान नदी में एक पत्थर पर कई सांप लिपटे हुए थे। राजा ने देखा तो वह देवी प्रतिमा थी। देवी ने कहा कि मुझे सिर पर उठाकर ले चलो, जहां रख दोगे वहीं स्थापित हो जाऊंगी। राजा प्रतिमा को उठाकर चले और नदी से चार किलोमीटर दूर जहां मंदिर बनाया जा रहा था वहां चबूतरे पर प्रतिमा को रखा। इसके बाद प्रतिमा वहां से हिली तक नहीं, इसलिए वहीं पर प्रतिमा को प्रतिष्ठापित किया गया।
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