जॉली एलएलबी एक प्रतिष्ठित फ्रेंचाइजी है, जिसके तीसरे संस्करण का ट्रेलर आने के बाद से ही मेरे मन में जिज्ञासा थी। अब फिल्म देखने पर उस जिज्ञासा को जमीन मिल गई। ट्रेलर में कवि मुक्तिबोध की एक तस्वीर दिखी। इस तस्वीर ने भीतर तक हलचल मचा दी थी। सवाल गहराया- इस पिक्चर की पॉलिटिक्स क्या है? एक किसान कुछ पन्ने पलट रहा है, उन्हीं पन्नों में से एक पर कवि मुक्तिबोध की जानी-पहचानी तस्वीर बडे़ करीने से चस्पां थी। मन में आदर भाव उमड़ा, यह सवाल भी उठा कि इस फिल्म में आखिर मुक्तिबोध की तस्वीर क्या कह रही है? डायरेक्टर-राइटर सुभाष कपूर ने किस मकसद से इसका उपयोग किया है। सबसे बड़ा सवाल तो यह था कि फिल्म जिस तरह से कॉमेडी जॉनर की बताई गई थी, वहां हिंदी के इतने दिग्गज और यथार्थवादी कवि का क्या काम हैं? भला जिस फिल्म में अक्षय कुमार और अरशद वारसी दो वकील बन कर धमाल मचा रहे हों वहां मुक्तिबोध आखिर किसलिये?
लेकिन इसी के साथ जज की भूमिका निभाने वाले सौरभ शुक्ला के अलावा कुछ और ऐसी छटाएं थीं, जिसने मेरे मिजाज को गंभीर बना दिया। मसलन अपने दिवंगत पति की प्रतिमा के पैरों से लिपटी सीमा बिस्वास दिखीं, कमजोर बनाम ताकतवर की जागरुकता जगाने वाली परिभाषा दिखी, किसान बनाम उद्योगपति की दिलचस्प दलीलों वाली रार दिखी, अदालत में जज की मस्तमिजाजी दिखी तो मुक्तिबोध की कुछेक प्रसिद्ध पंक्तियां याद आईं- अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे…या कि तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है पार्टनर? तो सुभाष कपूर की इस कॉमेंडी की चाशनी में लिपटी हुई विशुद्ध पॉलिटिकल फिल्म देखने के लिए बेचैन हो उठा। जानना चाहा डायरेक्टर की आखिर पॉलिटिक्स क्या है? क्या कहना चाहता है राइटर?
सबसे पहले आपको बताएं कि हिंदी साहित्य में मुक्तिबोध ज़िंदगी के उबड़ खाबड़ उपमानों के लिए जाने जाते हैं। उन्हें हिंदी का सबसे यथार्थवादी और प्रगतिशील कवि कहा गया है। उन्होंने साठ के दशक में ही डंके की चोट पर कहा था- चांद का मुंह टेढ़ा है। यह चांद को शीशा दिखाने जैसा था। यह कथन उन सौंदर्यवादियों के लिए एक चाबुक समान था जिन्होंने अब तक चांद के साये में न जाने कितने रुमानी अहसास के पल्प और गल्प दोनों ही रचे थे, पीढ़ियां दर पीढ़ियां उनके शब्दकोश पर लट्टू रहीं। लेकिन अकेला कवि मुक्तिबोध था जिन्होंने चांद को खुरदुरी जमीन दौड़ाया। मखमली छतों ही नहीं उतारा बल्कि किसान-मजदूर वर्ग की झोपड़ियों की खपरैल छतों पर भी टहलाया। उन्होंने लिखा था- टेढ़े-मुंह चांद की ऐयारी रोशनी, तिलिस्मी चांद की राज-भरी झाइयां… अजी चांदनी भी बड़ी मसखरी है…
मुक्तिबोध ही थे जिन्होंने लिखा कि अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे, तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़… वास्तव में मुक्तिबोध की रचनाएं अंधेरे के खिलाफ उजाले की मुनादी थी। और जब हम जॉली एलएलबी 3 देखते हैं तो अहसास होता है कि उस मुनादी पर अब भी कोई फफूंदी नहीं जमी है। ऐसे समय में जबकि परिभाषाएं, प्रतिमान, मान-अभिमान, ज़मीन और आसमान सबके रंग बदल रहे हैं, आभासी नव विहान में मुर्गे बांग दे रहे हैं- वहां इस फिल्मी अदालत में जज बने सौरभ शुक्ला ‘पेपर’ और ‘स्पिरिट’ दोनों की बात करते हैं। कहते हैं- कुछ बातें ‘स्पिरिट’ की भी होती हैं लेकिन इस देश में ज्यादातर ऑर्डर ‘पेपर’ के आधार पर दिये जाते हैं। मतलब साफ है कि ‘पेपर’ की समझ ‘स्पिरिट’ से ही विकसित होती है और वही इस फिल्म में बताया गया है। उचित न्याय तभी संभव है जब ‘पेपर’ के साथ ‘स्पिरिट’ होगी।
अगर यह ‘स्पिरिट’ पहले दिखाई गई होती तो फिल्म के कथानक में पारसौल गांव के किसान राजा राम सोलंकी की ज़मीन बीकानेर टू बोस्टन डेवलपमेंट प्रोजेक्ट में न हड़पी जाती और ना ही उस किसान को जान गंवानी पड़ती। जो किसान पहले हक जताता है- मेरी ज़मीन मेरी मर्ज़ी, फिर साहूकारी पाश में फंसकर ज़मीन गंवा देता है, तहसीलदार के आगे पगड़ी उतारकर गिड़गिड़ाता है कहता है- मेरे बेटे ने देश के लिए जान दी है। लेकिन चारों तरफ जब अंधेर और अंधेरा नजर आता है तो अपनी जिंदगी को उसी अंधेरे में खुद धक्का दे देता है, मौत की डुबकी लगा लेता है। इसी हार और हिलोर के सीक्वेंस में कुछ तस्वीरें और आवाज भी ह्रदय को झकझोर देती हैं।
किसान कुछ पन्ने पलट रहा है। स्क्रीन के ऊपर कागज पर कुछ लिखी पंक्तियां उभरती हैं। कुछ दस्तावेज और कुछ कतरनों का कोलाज बनता है। इसी कोलाज में एक कतरन पर कवि गजानन माधव मुक्तिबोध का अक्स उभरता है। हाथ में बीड़ी और कश खींचने का वो चिर परिचित अंदाज। सालों से यह तस्वीर हिंदी साहित्य की एक थाती की तरह रही। कहते हैं उनकी रचनाएं तो उनके जीवन काल में ख्याति पा चुकी थीं लेकिन उनके रहते उनका एक भी संकलन प्रकाशित नहीं हुआ था। लेकिन जैसे-जैसे काल बीतता गया लेखन-पठन जगत में उनकी लोकप्रियता उतनी ही तेजी से बढ़ती गई। मूल्यांकन और अनुसंधान होते गये। अब 2025 में वही मुक्तिबोध मुख्यधारा के हिंदी सिनेमा की स्क्रीन पर नजर आ गये तो ‘मठ’ और ‘गढ़’ के खिलाफ इसका मर्म समझा जा सकता है। निश्चय ही इसका पूरा क्रेडिट डायरेक्टर-राइटर सुभाष कपूर को ही जाता है।
अब वो पंक्तियां जो कविता पाठ की तरह लाचार किसान की खुदकुशी के समय बैकग्राउंड में सुनाई देती हैं:
छप्पर टपकता रहा मेरा फिर भी
मैंने बारिश की दुआ की
मेरे दादा को परदादा से
पिता को दादा से
और मुझे पिता से जो विरासत मिली
वही सौंपना चाहता था मैं अपने बेटे को
देना चाहता था थोड़ी-सी ज़मीन
और एक मुट्ठी बीज कि
सबकी भूख मिटाई जा सके
इसलिए मैंने यकीन किया
उनकी हर एक बात पर
भाषण में कहे जज्बात पर
मैं मुग्ध होकर देखता रहा
आसमान की तरफ उठे उनके सर
और उन्होंने मेरे पैरों के नीचे से जमीन खींच ली
मुझे अन्नदाता होने का अभिमान था
यही अपराध था मेरा कि
मैं एक किसान था।
हालांकि इस दौरान स्कीन पर कहीं भी यह सूचना लिखी नजर नहीं आती कि यह कविता किसकी लिखी है। लेकिन सीक्वेंस के कोलाज में मुक्तिबोध उपस्थित रहते हैं। और पूरे स्क्रीन पर नजर आते हैं। ये पंक्तियां मुक्तिबोध की हैं या नहीं या तो फिल्म के राइटर बता सकते हैं या फिर मुक्तिबोध साहित्य के स्कॉलर। लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि इस दौरान फिल्म का सीन किसी भी इंसान की हाड़ में हड़कंप मचा देने वाला बन पड़ा। फिल्म की शुरुआत में ही डिस्क्लेमर दिया गया है कि इसकी कहानी साल 2011 में उत्तर प्रदेश के भट्टा पारसौल गांव की घटना से प्रेरित है। फिल्म में इसे राजस्थान की पृष्ठभूमि में बदल दिया गया है। वैसे गांव का नाम पारसौल ही रहने दिया गया है।
फिल्म का वन लाइनर सार है- हमारी जमीन, हमारी मर्जी। यहां बीकानेर टू बोस्टन प्रोजेक्ट के लिए उद्योगपति हरिभाई खेतान (गजराज राव) गांव खाली कराने के लिए सारी तिकड़में करता है। स्थानीय प्रशासन, स्थानीय विधायक और अर्थशास्त्री भी उसकी मुट्ठी में है। और जब किसान राजा राम सोलंकी ने इनकी ताकत के आगे अपनी मर्जी और हक के ‘खतरे’ उठा लिये तो ‘मठ’ और ‘गढ़’ हिलने लगे। अक्षय कुमार और अरशद वारसी जो कि दो ऐसे वकील बने हैं, जो जॉली हैं, कम पढ़े लिखे हैं, उन्हें काम नहीं मिलता है, परेशान हैं, आपस में लड़ते रहते हैं लेकिन किसान की विधवा पत्नी की पीड़ा जानने के बाद उनका भी हृदय परिवर्तन हो जाता है और वे भी ज्यादती के खिलाफ ‘खतरे’ उठाने के लिए एकजुट हो जाते हैं। दूसरी तरफ दोनों जॉलियों से परेशान रहने वाला, अपनी वीरान जिंदगी को गुलशन बनाने की चाहत रखने वाला जज भी ‘पेपर’ से निकल कर ‘स्पिरिट’ की सुनने का ‘खतरा’ मोल ले लेता है।