2020 के दिल्ली दंगों में आरोपी उमर खालिद और शरजील इमाम की जमानत याचिका हाई कोर्ट ने खारिज कर दी। JNU के दोनों पूर्व छात्र 5 साल से जेल में हैं। शरजील को 25 अगस्त 2020 को गिरफ्तार किया गया था, जबकि उमर खालिद 13 सितंबर 2020 को जेल गए। इन दोनों को 5 साल से अधिक समय से कैद में रखा गया है, जबकि दंगे के दौरान दिल्ली पुलिस के जवान पर बंदूक तानने वाला शाहरुख पठान जमानत पर बाहर आ चुका है।
शाहरुख को इसी साल मार्च में कोर्ट ने 15 दिन की जमानत दी थी, जो उसके पिता की गिरती सेहत के कारण दी गई थी। शाहरुख के वकील ने तर्क दिया कि वह 3 मार्च 2020 से न्यायिक हिरासत में है और उसे कभी अंतरिम जमानत नहीं मिली। शाहरुख पठान पर दंगों से जुड़े दो मामले दर्ज हैं। उस पर हेड कांस्टेबल दीपक दहिया पर बंदूक तानने और रोहित शुक्ला की हत्या की साजिश में शामिल होने का आरोप है।
उमर खालिद और शरजील इमाम पर फरवरी 2020 के दंगों का कथित रूप से मुख्य षडयंत्रकारी होने का आरोप है, जिसके तहत UAPA और IPC के प्रावधानों के तहत मामला दर्ज किया गया। इन दंगों में 53 लोगों की मौत हो गई थी और 700 से अधिक घायल हुए थे। CAA-NRC के खिलाफ प्रदर्शन के दौरान हिंसा भड़की थी।
शरजील इमाम और उमर खालिद जमानत के लिए हाई कोर्ट गए थे, लेकिन उनकी याचिका खारिज कर दी गई। इससे पहले निचली अदालत ने भी उनकी जमानत याचिका खारिज कर दी थी। निचली अदालत के फैसले को चुनौती देते हुए, इमाम और खालिद ने लंबी कैद और जमानत पाने वाले अन्य सह-आरोपियों के साथ समानता का हवाला दिया।
मंगलवार को याचिका खारिज करते हुए हाई कोर्ट ने कहा कि शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों में भाग लेना और सार्वजनिक सभाओं में भाषण देने का अधिकार अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत संरक्षित है, लेकिन इसका गलत इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। न्यायमूर्ति नवीन चावला और न्यायमूर्ति शलिंदर कौर की पीठ ने अपने फैसले में कहा कि यह अधिकार पूर्ण नहीं है और संविधान द्वारा लगाए गए उचित प्रतिबंधों के अधीन है। यदि विरोध प्रदर्शन के अप्रतिबंधित अधिकार की अनुमति दी जाती, तो यह संवैधानिक ढांचे को नुकसान पहुंचाएगा और देश में कानून-व्यवस्था की स्थिति को प्रभावित करेगा।
उच्च न्यायालय ने कहा कि नागरिकों द्वारा विरोध प्रदर्शन या प्रदर्शनों की आड़ में किसी भी षडयंत्रकारी हिंसा की अनुमति नहीं दी जा सकती। पीठ ने कहा कि ऐसी गतिविधियां अभिव्यक्ति की आजादी के दायरे में नहीं आतीं। पीठ ने कहा कि संविधान नागरिकों को विरोध प्रदर्शन या आंदोलन करने का अधिकार देता है, बशर्ते कि ऐसे प्रदर्शन व्यवस्थित, शांतिपूर्ण और बिना हथियारों के हों।
फैसले में कहा गया, नागरिकों को विधायी कार्रवाइयों के खिलाफ चिंताएं व्यक्त करने का मौलिक अधिकार है, जो शासन में नागरिकों की भागीदारी का संकेत देकर लोकतांत्रिक व्यवस्था को और मजबूत बनाता है। यह अधिकार अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह नागरिकों को अपनी असहमति व्यक्त करने, शासन में खामियों को उजागर करने और राज्य के अधिकारियों से जवाबदेही की मांग करने का अधिकार देता है। हालांकि, ऐसी कार्रवाइयां कानून के दायरे में ही होनी चाहिए।
अभियोजन पक्ष ने याचिकाओं का विरोध करते हुए कहा कि यह स्वतःस्फूर्त दंगों का मामला नहीं है, बल्कि एक साजिश थी। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने दलील दी कि यह वैश्विक स्तर पर भारत को बदनाम करने की साजिश थी और केवल लंबी कैद के आधार पर जमानत नहीं दी जा सकती।
अभियोजन पक्ष ने आरोप लगाया कि इमाम ने अपने सार्वजनिक भाषणों में सरकार को पंगु बनाने की कार्ययोजना के रूप में चक्का जाम के विचार का प्रचार किया और कहा कि टकरावपूर्ण हिंसा होनी चाहिए। ये आरोप लगाया गया कि ये प्रदर्शन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की यात्रा के समय हिंसा भड़काने की आरोपी व्यक्तियों की साजिश का हिस्सा थे।
दिल्ली पुलिस ने दलील दी कि यह कोई स्वतःस्फूर्त दंगा नहीं था, बल्कि देश की राजधानी में पहले से रची गई साजिश के तहत एक सुनियोजित घटना थी। पुलिस ने आरोप लगाया कि खालिद, इमाम के भाषणों ने सीएए-एनआरसी, बाबरी मस्जिद, तीन तलाक और कश्मीर के संदर्भ में एक जैसे शब्दों से डर की भावना पैदा की। पुलिस ने दलील दी कि ऐसे ‘गंभीर’ अपराधों से जुड़े मामले में, ‘जमानत नियम है और जेल अपवाद’ के सिद्धांत का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।
हालांकि, इमाम के वकील ने दलील दी कि वह जगह, समय और खालिद समेत सह-आरोपियों से पूरी तरह से अलग थे। वकील ने कहा कि इमाम के भाषणों और व्हाट्सएप चैट में कभी भी किसी अशांति का आह्वान नहीं किया गया।