भारत में स्लीपर बसों से यात्रा करना अब जानलेवा साबित हो रहा है। पिछले एक हफ्ते में राजस्थान, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में हुई दो भीषण दुर्घटनाओं में 46 लोगों की जान चली गई है, जिससे इन बसों की सुरक्षा पर गंभीर सवाल खड़े हो गए हैं। ये लगातार हो रही घटनाएं दर्शाती हैं कि लंबी दूरी की स्लीपर बसों में सुरक्षा, नियमन और डिज़ाइन को लेकर गंभीर खामियां हैं, जो इन्हें यात्रियों के लिए ‘मौत का जाल’ बना रही हैं।

हाल ही में, राजस्थान के जोधपुर में जैसलमेर से आ रही एक प्राइवेट स्लीपर बस में आग लगने से 26 लोगों की दुखद मृत्यु हो गई। इससे भी बुरा, केवल एक हफ्ते बाद, 24 अक्टूबर को आंध्र प्रदेश के कुर्नूल में बेंगलुरु-हैदराबाद हाईवे पर एक मोटरसाइकिल से टकराने के बाद एक स्लीपर बस में भीषण आग लग गई, जिसमें 20 लोगों की जान चली गई। इन घटनाओं से पहले, 11 नवंबर को तेलंगाना के नालगोंडा जिले में एनएच 65 पर एक प्राइवेट स्लीपर बस में आग लगने से 29 यात्रियों ने बाल-बाल जान बचाई।
ये त्रासदियां भारत में सड़क सुरक्षा की स्थिति और इन लंबी दूरी की स्लीपर बसों के ‘मौत के जाल’ बनने के कारणों पर चिंताजनक प्रश्न उठाती हैं। सेवलाइफ फाउंडेशन के सीईओ और सड़क सुरक्षा विशेषज्ञ पियूष तिवारी के अनुसार, इसका एक बड़ा कारण परिवहन अधिकारियों और बस बॉडी बिल्डरों के बीच एक मिलीभगत है। तिवारी बताते हैं कि बस मालिक मूल उपकरण निर्माताओं (OEM) से चेसिस खरीदते हैं और फिर उन्हें बॉडी बिल्डरों को देते हैं, जो उन पर बॉडी पार्ट्स बनाते हैं।
बॉडी बिल्डरों को ऑटोमोटिव इंडस्ट्री स्टैंडर्ड्स (AIS) 052 और 119 का पालन करना होता है, लेकिन ज़मीनी स्तर पर इनका पालन बेहद कमजोर है। आरटीओ (RTO) इस बात की जांच करने में नाकाम रहते हैं कि वाहन कानून के अनुरूप हैं या नहीं। नतीजतन, कई बसें स्वीकृत संख्या से अधिक सीटें जोड़ देती हैं, जिससे आपातकालीन निकास बाधित हो जाते हैं। तिवारी के अनुसार, इन बसों में अक्सर अग्निशामक यंत्र भी नहीं होते। समस्या का एक बड़ा हिस्सा यह है कि ये बसें बड़े ऑटोमोबाइल कंपनियों के बजाय अनौपचारिक बॉडी बिल्डरों द्वारा बनाई जाती हैं, जो नियमों का पालन नहीं करते।
बॉडी पार्ट्स के मामले में, कारों में इस्तेमाल होने वाले प्रबलित स्टील के बजाय, कई बिल्डर एल्यूमीनियम-वुड कंपोजिट सामग्री का उपयोग करते हैं, जो अत्यधिक ज्वलनशील होती है। बस के अंदर बने कंपार्टमेंट ऐसे होते हैं जो लोगों को फंसा लेते हैं, क्योंकि वे ढहने योग्य नहीं होते। पर्दों में भी ज्वलन-रोधी सामग्री का उपयोग नहीं किया जाता। इन कारणों से, हाल की घटनाओं में आग कुछ ही मिनटों में पूरी बस में फैल गई। कुछ मामलों में, आरटीओ के साथ मिलीभगत के चलते, बॉडी बिल्डर अतिरिक्त फ्यूल टैंक भी लगा देते हैं, जिससे लंबी यात्राएं संभव हो सकें, जो वाहन के सुरक्षा मानकों के विरुद्ध है।
हालांकि, इलेक्ट्रिक बसों का मामला अलग है, क्योंकि वे पूरी तरह से OEM द्वारा बनाई जाती हैं और इनमें बॉडी बिल्डरों की भूमिका नहीं होती, इसलिए वे अनुपालन मानकों को पूरा करती हैं। सेवलाइफ फाउंडेशन सड़क दुर्घटनाओं की फोरेंसिक जांच करके सुरक्षा मुद्दों की पहचान करने का काम करता है और केंद्र व नौ राज्य सरकारों के साथ मिलकर देश के 100 सबसे घातक राजमार्गों और 100 जिलों की पहचान की है, जिनकी सूची जल्द ही जारी की जाएगी।






