सर्वोच्च न्यायालय ने विचाराधीन कैदियों को जेल में सालों तक रखने की प्रथा को समाप्त करने और तुरंत जमानत देने का आदेश दिया था, लेकिन हालात अब भी वैसे ही हैं। अदालतों द्वारा सबूतों की कमी या झूठे आरोपों का खुलासा होने पर कई साल जेल में बिता चुके कैदियों को बरी किया जाता है। ऐसे में सवाल है कि जेल में बेगुनाह के बिताए समय का हिसाब कौन देगा क्योंकि कानून में मुआवजे का कोई प्रावधान नहीं है। उत्तर प्रदेश के एक मामले में जमानत मिलने के बावजूद कैदी को रिहा नहीं किया गया और बाद में सुप्रीम कोर्ट ने अधिकारियों को उसे 5 लाख रुपये का मुआवजा देने का आदेश दिया।
देशभर की जेलों में लगभग 25 प्रतिशत सजायाफ्ता और 75 प्रतिशत विचाराधीन कैदी हैं। जम्मू-कश्मीर, बिहार और दिल्ली की जेलों में सजायाफ्ता कैदियों की तुलना में विचाराधीन कैदियों की संख्या का औसत और भी अधिक है। नालसा की समिति यूटीआरसी की रिपोर्ट के बावजूद केंद्र और राज्य सरकारों का ध्यान इस ओर नहीं गया, जबकि सुप्रीम कोर्ट कई बार चिंता व्यक्त कर चुका है। हाल ही में, दिल्ली 2020 दंगा मामले में कई निर्दोष लोगों को अदालत ने बरी किया।
कड़कड़डूमा कोर्ट ने अपने फैसले में स्पष्ट किया कि ये मामले झूठे थे और पुलिस ने बिना ठोस सबूत के आरोपियों को फंसाया, जिससे इन निर्दोष लोगों का जीवन हमेशा के लिए प्रभावित हुआ। किसी को ब्लैक लिस्ट कर दिया गया, किसी को एक के बजाय 4 केस में अपराधी बना दिया गया, तो किसी की जमा-पूंजी मुकदमों को लड़ते-लड़ते खत्म हो गई। कोर्ट ने 25 अगस्त को जिन लोगों को बरी किया, उनमें ईशु गुप्ता, प्रेम प्रकाश, मनीष शर्मा सहित अन्य शामिल थे।
विचाराधीन कैदियों का जेल में कई साल बिताने के बाद बाहर आने पर जीवन बदहाल हो जाता है। कई मामलों में, बरी होने के बाद बेगुनाह को कई मायनों में सजा मिलती है। कामकाज या नौकरी ठप्प हो जाती है, सामाजिक ताना-बाना टूट जाता है, और परिवार चलाना मुश्किल हो जाता है। सीजेआई बीआर गवई ने एक कार्यक्रम के दौरान चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि सरकार को इस पर विचार करना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट के वकील आरके कपूर ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने विचाराधीन कैदियों के साथ-साथ सजा की अवधि पूरी कर चुके दोषियों को भी तत्काल रिहा करने का आदेश दिया था। आदेश में कहा गया था कि यदि कोई दोषी जेल में है, तो उसे तुरंत रिहा किया जाए। सीजेआई बीआर गवई की अध्यक्षता वाली पीठ ने कैदियों को लेकर चिंता व्यक्त की थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि पहली बार अपराध करने वाले विचाराधीन कैदियों को, जिन्होंने अपराध में तय सजा का एक तिहाई समय जेल में बिता लिया है, उन्हें सिर्फ बॉन्ड पर रिहा कर दिया जाए। बेंच ने जेल सुपरिटेंडेंट से कहा था कि वे पहली बार के अपराधियों के संबंध में बीएनएस की धारा 479 के तहत काम करना शुरू करें। अपराध में तय सजा का एक तिहाई समय जेल में बिता चुके विचाराधीन कैदियों को महीने भर के भीतर छोड़ा जाए। साथ ही, इसकी रिपोर्ट राज्य या केंद्र सरकार के संबंधित विभाग को दी जाए।