देशभर में लगातार और व्यापक भूस्खलन केवल प्राकृतिक भौगोलिक परिस्थितियों का नतीजा नहीं हैं। भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (GSI) के एक वरिष्ठ वैज्ञानिक के अनुसार, इसके पीछे वर्षा के बदलते पैटर्न, जलवायु परिवर्तन, वनों की कटाई और संवेदनशील क्षेत्रों में अनियंत्रित निर्माण गतिविधियां भी प्रमुख भूमिका निभा रही हैं। प्रदूषण सीधे तौर पर भूस्खलन का कारण नहीं बनता, लेकिन वायु प्रदूषण और ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा दे रहा है, जिससे बारिश के पैटर्न प्रभावित हो रहे हैं। इससे उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश जैसे भूगर्भीय रूप से नाजुक इलाकों में भूस्खलन की आशंका बढ़ गई है।
पहाड़ी क्षेत्रों में भूस्खलन की संवेदनशीलता बढ़ाने वाले कई कारक हैं, जैसे कि भौगोलिक बनावट, बदलती जलवायु और मानवीय हस्तक्षेप। हिमालय और पश्चिमी घाट जैसे क्षेत्रों में भूस्खलन एक बड़ी चुनौती रही है, लेकिन हाल के वर्षों में इनकी संख्या और तीव्रता दोनों बढ़ी है। हिमालय के ऊपरी क्षेत्रों में हिमनद झीलों के फटने से अचानक बाढ़ और ढलानों पर गहरा असर पड़ता है।
क्लाइमेट चेंज और मानवीय हस्तक्षेप भूभाग को अस्थिर बना रहे हैं। खड़ी ढलानों, चट्टानों, मिट्टी या मलबे में हलचल से भूस्खलन का खतरा बढ़ जाता है। टेक्टोनिक रूप से सक्रिय क्षेत्रों में भूवैज्ञानिक संरचनाएं कमजोर होती हैं, जिससे बारिश या भूकंप के समय में टूटने की संभावना बढ़ जाती है। लंबे समय तक बारिश से मिट्टी और चट्टानों में नमी बढ़ने से भूस्खलन की संभावना बढ़ जाती है। विकास गतिविधियां, वनों की कटाई, सड़क निर्माण और बुनियादी ढांचे का विस्तार भूभाग को अस्थिर करते हैं।
GSI ने राष्ट्रीय भूस्खलन संवेदनशीलता मानचित्रण कार्यक्रम के तहत संवेदनशील क्षेत्रों की पहचान की है, जिसमें जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश के हिमालयी क्षेत्र शामिल हैं। पश्चिमी घाट में केरल, कर्नाटक, महाराष्ट्र और तमिलनाडु के नीलगिरी और कोंकण तट भी जोखिम वाले क्षेत्रों में आते हैं।