नेपाल में ओली सरकार जन आक्रोश को संभालने में विफल रही, या यूँ कहें कि वह जनता की भावनाओं को समझने में चूक गई। जनता के बीच यह असंतोष कोई एक दिन का नहीं था, बल्कि वर्षों से पनप रहा था, बस एक चिंगारी की प्रतीक्षा थी। इसका परिणाम यह हुआ कि 8 सितंबर को जनता ने हिंसक प्रदर्शन किया। लोगों ने पुलिस घेरा तोड़कर संसद परिसर में प्रवेश किया। पुलिस की गोलीबारी और हिंसा से कई लोग मारे गए। गुस्से में लोगों ने संसद भवन को जला दिया और एक पूर्व प्रधानमंत्री की पत्नी की भी हत्या कर दी गई।
मौजूदा प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली जान बचाकर भाग निकले। उन्होंने अपने कुछ मंत्रियों को हेलीकॉप्टर में बिठाकर काठमांडू से प्रस्थान किया। वे कहाँ गए, किसी को पता नहीं। भ्रष्टाचार में डूबी सरकार के खिलाफ लोगों में गुस्सा था। ऐसे समय में, सरकार द्वारा सोशल मीडिया पर प्रतिबंध लगाने से स्थिति और बिगड़ गई।
जनता में इतना अधिक आक्रोश था कि सरकार के कई मंत्रियों को दौड़ा-दौड़ाकर पीटा गया। पूर्व प्रधानमंत्री झालानाथ खनाल के घर को आग लगा दी गई, जिसमें उनकी पत्नी राजलक्ष्मी चित्रकार बुरी तरह झुलस गईं। अस्पताल में उनकी मृत्यु हो गई। एक और प्रधानमंत्री, शेर बहादुर देउबा को भी जनता ने पीटा। उनकी पत्नी भी घायल हो गईं। वित्त मंत्री विष्णु पौडेल को घर से बाहर निकालकर पीटा गया। केपी शर्मा ओली के घर को आग लगा दी गई और राष्ट्रपति के आवास को भी जला दिया गया। संसद भवन में आग पर काबू नहीं पाया जा सका और लूटपाट भी हुई। सिंह दरबार में भी आग लगाई गई। नेपाल पूरी तरह से विद्रोहियों के कब्जे में है। सेना और पुलिस लाचार हैं। प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने इस्तीफा दे दिया है।
नेपाल को केपी शर्मा ओली संभाल नहीं पा रहे थे। प्रदर्शन के कई कारण थे, जिनमें मुख्य कारण नेपाल में बढ़ता भ्रष्टाचार था। बार-बार सरकारें बदलीं, और पांच वर्षों में तीन प्रधानमंत्री आए – शेर बहादुर देउबा, पुष्पकमल दहल प्रचंड और केपी शर्मा ओली। देउबा को छोड़कर, बाकी दोनों कम्युनिस्ट थे। वे चीन से नजदीकी बढ़ा रहे थे, जिससे भारत से दूरी स्वाभाविक हो गई। लिपुलेख विवाद पर ओली ने भारत को नाराज कर दिया, जबकि नेपालियों को सबसे अधिक भारत में ही शरण मिलती है। भारत के साथ विवाद बढ़ाने का मतलब था रोटी-बेटी के संबंधों को खत्म करना। इसके अलावा, तराई क्षेत्र में रहने वाले मधेशी लोगों के साथ नेपाल सरकार का भेदभावपूर्ण व्यवहार रहा है।
इस आंदोलन का नेतृत्व बालेंद्र शाह उर्फ बालन के पास है, जो काठमांडू के मेयर हैं और युवा हैं। माना जा रहा है कि वे अंतरिम सरकार का नेतृत्व करेंगे। भारत और चीन के बीच बफर स्टेट के रूप में नेपाल अमेरिका के लिए भी लाभकारी है। ओली सरकार का चीन की ओर झुकाव बहुत अधिक था। प्रधानमंत्री ओली चीन के समर्थन से भारत और अमेरिका दोनों को आंखें दिखाने लगे थे। नेपाल सरकार के हर मंत्री ने खूब धन कमाया। भाई-भतीजावाद इतना अधिक था कि हर महत्वपूर्ण पद पर मंत्रियों के बेटे-बेटियां थे। परियोजनाओं के ठेके भी उन्हें ही मिलते थे।
पिछले चार वर्षों में, सत्ता में बैठे लोगों के भ्रष्टाचार के कारण भारत के पड़ोसी चार देशों में जनता ने सरकारों का तख्ता पलट कर दिया। 2021 में अफगानिस्तान, 2022 में श्रीलंका, अगस्त 2024 में बांग्लादेश, और अब नेपाल में भी ऐसा ही हुआ। इन चारों देशों में बेरोजगारी और भ्रष्टाचार बहुत अधिक है। जनता सरकारों से तंग आ चुकी थी। इन चारों देशों में चीन और अमेरिका दोनों दखल दे रहे थे। चीन के बारे में कहा जाता है कि वह जिस देश पर कृपा करता है, वहां की सरकार अस्थिर होने लगती है।
नेपाल की तरह ही जन आक्रोश 2011 में लीबिया में देखने को मिला था। वहां, कर्नल गद्दाफी की सरकार का युवाओं ने तख्ता पलट कर दिया था। गद्दाफी की दमनकारी नीतियों, भ्रष्ट आचरण और भाई-भतीजावाद से देशवासी परेशान थे। इसलिए फेसबुक जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल किया गया।
छोटे देशों में जहां राजनेताओं की जनता पर पकड़ नहीं होती, वहां सत्ता में बने रहना आसान नहीं होता। भ्रष्टाचार के घेरे में हर नेता घिर जाता है और एक समय के बाद बेरोजगारी भी बढ़ने लगती है। बांग्लादेश में, प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजेद ने पलायन को रोका, लेकिन ठेके उनके परिवार को मिले। इसका लाभ हसीना विरोधी दलों ने उठाया और तख्ता पलट करवा दिया।
तख्तापलट के बाद आई नई सरकारें कोई क्रांतिकारी कदम नहीं उठातीं। हसीना के बाद बांग्लादेश में बनी अंतरिम सरकार भ्रष्टाचार पर अंकुश नहीं लगा पाई और न ही जन आक्रोश को रोक सकी। नई सरकार के मुखिया मोहम्मद यूनुस वहां अल्पसंख्यकों और धर्मनिरपेक्ष लोगों की रक्षा करने में अक्षम हैं।