गंगा जमुनी तहजीब का शहर काशी यूं नहीं कहा जाता है। श्री काशी विश्वनाथ की शाही पगड़ी ढाई सौ सालों से हाजी गयास का परिवार बनाता आ रहा है। रंगभरी एकादशी पर बाबा विश्वनाथ हाजी गयास के हाथों बनी शाही पगड़ी पहनते हैं। सोमवार को महंत आवास पर देर शाम को बाबा की राजशाही पगड़ी की विशेष पूजा की गई। गौरा की विदाई के पहले बाबा के राजसी स्वरूप के दर्शन होंगे।श्री काशी विश्वनाथ मंदिर के महंत डॉ. कुलपति तिवारी ने बताया कि हाजी गयास के परदादा जब लखनऊ से आए थे तो यहीं के होकर रह गए। उन्होंने पहली बार बाबा की पगड़ी बनाने की पेशकश की तो उसको स्वीकार कर लिया गया। वहां से चली आ रही सद्भाव की यह परंपरा आज तक कायम है। हाजी छेदी से शुरू हुई परंपरा को उनके पुत्र हाजी अब्दुल गफूर फिर से मोहम्मद जहूर से हाजी गयास अहमद तक पहुंच गई।
अब तो नई पीढ़ी के मुनव्वर अली, अब्दुल सलीम, मो. कलीम, मो. शाहिद और मो. तौफीक इस जिम्मेदारी को निभाने के लिए तैयार हो चुके हैं। हाजी गयास का कहना है कि वे इसे दिलों को करीब लाने का जरिया भी मानते हैं। बाबा विश्वनाथ का आशीर्वाद बना रहे बस यही उनका मेहनताना है। कई पीढ़ियों से बाबा विश्वनाथ की दुआएं मिल रही हैं।मुनव्वर अली ने बताया कि कागज की दफ्ती से ढांचा तैयार किया जाता है। इसको सूती कपड़े से मजबूत किया जाता है। इसके बाद रेशमी कपड़े से पगड़ी तैयार होती है। इसको ढेर सारे मोती और जरी से सजाया जाता है।
गंगा जमुनी तहजीब का शहर काशी यूं नहीं कहा जाता है। श्री काशी विश्वनाथ की शाही पगड़ी ढाई सौ सालों से हाजी गयास का परिवार बनाता आ रहा है। रंगभरी एकादशी पर बाबा विश्वनाथ हाजी गयास के हाथों बनी शाही पगड़ी पहनते हैं। सोमवार को महंत आवास पर देर शाम को बाबा की राजशाही पगड़ी की विशेष पूजा की गई। गौरा की विदाई के पहले बाबा के राजसी स्वरूप के दर्शन होंगे।
श्री काशी विश्वनाथ मंदिर के महंत डॉ. कुलपति तिवारी ने बताया कि हाजी गयास के परदादा जब लखनऊ से आए थे तो यहीं के होकर रह गए। उन्होंने पहली बार बाबा की पगड़ी बनाने की पेशकश की तो उसको स्वीकार कर लिया गया। वहां से चली आ रही सद्भाव की यह परंपरा आज तक कायम है। हाजी छेदी से शुरू हुई परंपरा को उनके पुत्र हाजी अब्दुल गफूर फिर से मोहम्मद जहूर से हाजी गयास अहमद तक पहुंच गई।
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