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लावारिसों से जोड़ा खून जैसा रिश्ता, अफसर ने दी 167 गुमनाम शवों को दी मुखाग्नि

जिनका दुख लिखने की खातिर मिली न इतिहासों की स्याही/ जग वालों को नाखुश करके मैंने उनकी भरी गवाही/ कंधे चार मिले ना जिनको, जिनकी उठी न अर्थी भी/खुशियों की नौकरी छोड़कर मैं उनका बन गया सिपाही…। यह कविता फाफामऊ घाट पर रेत में दफन उन सैकड़ों गुमनामों के शवों को तारने वाले प्रयागराज के अफसर पर फिट बैठती हैं। कोरोना काल में स्वजनों की मौत पर उन्हें कंधा देने के लिए पड़ोसी, रिश्तेदार तो दूर, घर के लोग भी डर की वजह से तैयार नहीं हुए थे। लेकिन, उसी समय के शवों के साथ इस अफसर ने खून जैसा रिश्ता जोड़कर मानवता की ऐसी मिसाल पेश की, जिसे आने वाली पीढ़ियां हमेशा के लिए याद रखेंगी। नगर निगम में जोनल अधिकारी के पद पर तैनात नीरज कुमार सिंह को कुछ समय पहले ही नवगठित फाफामऊ जोन की जिम्मेदारी मिली है।

जौनपुर के सिकरारा स्थित खानापट्टी गांव के नरसिंह बहादुर के पुत्र नीरज बचपन से ही दूसरों के मददगार रहे हैं। अफसर बनने के बाद भी वही भावना उनमें अब भी मौजूद है। इसका उदाहरण है फाफामऊ घाट पर उन लावारिस शवों का अंतिम संस्कार, जिन्हें लेकर पूरी दुनिया में शोर मचा था।
बताते हैं कि कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर में बीते अप्रैल, मई महीने के दौरान जब फाफामऊ श्मशान घाट पर शवों जलाने के लिए जगह नहीं मिल रही थी और लकड़ी, कर्मकांड के नाम पर मनमाना वसूली की जा रही थी, तभी से नीरज वहां शव लेकर आने वालों की मदद के लिए आगे आ गए थे। तब नीरज ने उन दिनों 12 ऐसे शवों का अंतिम संस्कार खुद किया, जिनके शवों को घाट पर लावारिस छोड़कर लोग चले गए थे। इसी दौरान रेत में दबाए गए कुछ शवों के बाहर दिखने की जानकारी मिलने के बाद योगी सरकार ने ऐसे लावारिस शवों का सम्मान के साथ अंतिम संस्कार कराने का निर्देश दिया था।
तब नगर आयुक्त ने यह जिम्मेदारी जोनल अफसर नीरज को सौंप दी। संक्रमण फैलने के डर को नकार कर उन्होंने शवों को जलाने की चुनौती स्वीकार कर ली। लोग जहां एक शव को जलाने में घंटों वक्त लगने पर थक जाते हैं और फिर घर आकर स्नान के बाद शरीर को पवित्र किया जाता है, वहीं इस अफसर ने बिना रुके एक दिन में कभी 22 तो कभी 24 और कभी 39 शवों को मुखाग्नि देने का रिकार्ड बनाया। उन्होंने ऐसे गुमनाम शवों के साथ खून जैसा रिश्ता जोड़ा। वे श्राद्ध के बाद चंदन की लकड़ी, घी चिताओं पर रखरकर परिक्रमा करते थे। हर शव के लिए कफन और रामनामी ओढ़ाकर पूरे रीति रिवाज के साथ उन्होंने लगातार महीने भर में 167 शवों को मुखाग्नि दी। बाढ़ आने से पहले इस घाट पर कोई भी लावारिस शव बिना अंतिम संस्कार के नहीं रहा।

जिनका दुख लिखने की खातिर मिली न इतिहासों की स्याही/ जग वालों को नाखुश करके मैंने उनकी भरी गवाही/ कंधे चार मिले ना जिनको, जिनकी उठी न अर्थी भी/खुशियों की नौकरी छोड़कर मैं उनका बन गया सिपाही…। यह कविता फाफामऊ घाट पर रेत में दफन उन सैकड़ों गुमनामों के शवों को तारने वाले प्रयागराज के अफसर पर फिट बैठती हैं। कोरोना काल में स्वजनों की मौत पर उन्हें कंधा देने के लिए पड़ोसी, रिश्तेदार तो दूर, घर के लोग भी डर की वजह से तैयार नहीं हुए थे। लेकिन, उसी समय के शवों के साथ इस अफसर ने खून जैसा रिश्ता जोड़कर मानवता की ऐसी मिसाल पेश की, जिसे आने वाली पीढ़ियां हमेशा के लिए याद रखेंगी।

नगर निगम में जोनल अधिकारी के पद पर तैनात नीरज कुमार सिंह को कुछ समय पहले ही नवगठित फाफामऊ जोन की जिम्मेदारी मिली है। जौनपुर के सिकरारा स्थित खानापट्टी गांव के नरसिंह बहादुर के पुत्र नीरज बचपन से ही दूसरों के मददगार रहे हैं। अफसर बनने के बाद भी वही भावना उनमें अब भी मौजूद है। इसका उदाहरण है फाफामऊ घाट पर उन लावारिस शवों का अंतिम संस्कार, जिन्हें लेकर पूरी दुनिया में शोर मचा था।

बताते हैं कि कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर में बीते अप्रैल, मई महीने के दौरान जब फाफामऊ श्मशान घाट पर शवों जलाने के लिए जगह नहीं मिल रही थी और लकड़ी, कर्मकांड के नाम पर मनमाना वसूली की जा रही थी, तभी से नीरज वहां शव लेकर आने वालों की मदद के लिए आगे आ गए थे। तब नीरज ने उन दिनों 12 ऐसे शवों का अंतिम संस्कार खुद किया, जिनके शवों को घाट पर लावारिस छोड़कर लोग चले गए थे। इसी दौरान रेत में दबाए गए कुछ शवों के बाहर दिखने की जानकारी मिलने के बाद योगी सरकार ने ऐसे लावारिस शवों का सम्मान के साथ अंतिम संस्कार कराने का निर्देश दिया था।

तब नगर आयुक्त ने यह जिम्मेदारी जोनल अफसर नीरज को सौंप दी। संक्रमण फैलने के डर को नकार कर उन्होंने शवों को जलाने की चुनौती स्वीकार कर ली। लोग जहां एक शव को जलाने में घंटों वक्त लगने पर थक जाते हैं और फिर घर आकर स्नान के बाद शरीर को पवित्र किया जाता है, वहीं इस अफसर ने बिना रुके एक दिन में कभी 22 तो कभी 24 और कभी 39 शवों को मुखाग्नि देने का रिकार्ड बनाया। उन्होंने ऐसे गुमनाम शवों के साथ खून जैसा रिश्ता जोड़ा। वे श्राद्ध के बाद चंदन की लकड़ी, घी चिताओं पर रखरकर परिक्रमा करते थे। हर शव के लिए कफन और रामनामी ओढ़ाकर पूरे रीति रिवाज के साथ उन्होंने लगातार महीने भर में 167 शवों को मुखाग्नि दी। बाढ़ आने से पहले इस घाट पर कोई भी लावारिस शव बिना अंतिम संस्कार के नहीं रहा।