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अब न हम और न हाथी रहे एक-दूजे के साथी

-ऋतुपर्ण दवे

हाथियों की तेजी से घटती संख्या के बावजूद ये कम से कम भारत में तो इन्सानों के
लिए जानलेवा मुसीबत बने हुए हैं। सच तो यह है कि हाथियों की खुद की रिहाइश बेहद
खतरे में है और दिनों दिन खत्म होती जा रही है। खाने की तलाश में जंगलों से दूर उन
पुराने ठौर पर आ धमकते हैं जो अब इंसानी तरक्की की नई पहचान है। खूब उत्पात मचाते
हैं, जान तक ले लेते हैं। बीते 100 बरसों में इनकी संख्या बहुत घटी है। अब तब के मुकाबले
केवल 10-15 प्रतिशत ही हैं। दुनिया के सबसे बड़े जानवरों में शुमार हाथी की तीन प्रजातियां
अफ्रीकी सवाना, अफ्रीकी वन और एशियाई हैं। संख्या घटने का कारण प्राकृतिक विचरण क्षेत्रों
की बर्बादी और अवैध शिकार है। दुनिया भर में बस 50 से 60 हजार एशियाई हाथी ही बचे
हैं जिनकी भारत में 2017 में हुई गणना के अनुसार संख्या 27312 हैं। भारी भरकम हाथी 5
से 6 हजार किलोग्राम वजनी तथा 3 मीटर ऊंचा और 6 मीटर तक लंबा हो सकता है।
छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, झारखण्ड, बिहार, केरल, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु,
उत्तराखण्ड, असम, कर्नाटक, ओडीशा, अरुणांचल प्रदेश, नागालैण्ड, मेघालय, आन्ध्र प्रदेश व
अन्य राज्यों से अक्सर हाथियों के उत्पात की चौंकाने वाली हकीकत सामने आती रहती हैं।
अभी कई राज्यों से हाथियों के ताण्डव की भयावह तस्वीरें सामने आ रही हैं। मप्र से तो बेहद
चौंकाने वाली तस्वीरें आईं। शहडोल के जयसिंहनगर, खैरहा व करीबी गांवों में हाथियों ने 20-
22 दिनों में जगह बदल-बदल खूब उत्पात मचाया। हद तब हुई जब बीते पखवाड़े 3 हाथी
कोदवार, करकटी, होकर घनी आबादी वाले नगर धनपुरी पहुंच गए। शहडोल जिले में इन्होंने
हफ्ते भर में 5 लोगों को कुचल मौत के आगोश में समा दिया। बहुत से कच्चे मकान ढ़हा
दिए, खेत, खलिहान, बाग-बगीचों को जबरदस्त नुकसान पहुंचाया। घरों में रखा अनाज तक
खा गए और बचा खुचा रौंद गए। इनके मूवमेंट पर वनविभाग की निश्चिंतता, लापरवाही या
नासमझी जो भी कहें, समझ से परे है। उत्पाती 9 हाथियों के बारे में पहले कहा गया कि
सभी करीबी बांधवगढ़ नेशनल पार्क की तरफ बढ़ रहे हैं लेकिन अचानक विपरीत दिशा में दूर
धनपुरी पहुंच सबको सकते में डाल दिया। शहडोल संभाग हाथियों के निशाने पर हमेशा रहा
लेकिन ऐसा भयावह उत्पात पहले कभी नहीं दिखा। कमोवेश यही हालात छत्तीसगढ़ के
सरगुजा, जशपुर, बलरामपुर व कोरिया इलाके सहित कई दूसरे राज्यों में भी हैं।

छत्तीसगढ़ व मप्र के काफी बड़े क्षेत्र कभी हाथियों की रिहाइश थे जिनमें कई जगह
अब कोयला खदानें संचालित हैं। हाथी अभयारण्य की बाते तो होती हैं। लेकिन रकवा तय
होने बाद वहां बनना तो दूर उल्टा घटा दिया जाता है। जहां-तहां खुलती खदानों से इंसानों
और हाथियों का संघर्ष भी भयंकर होता जा रहा है। हाथियों के पुराने ठिकानों पर बढ़ते
इन्सानी प्रहार की आशंका से लेमरू रिजर्व(छग) को आनन-फानन में मंजूरी दी गई। पहले
रकवा 3827 वर्ग किलोमीटर तय था लेकिन अक्टूबर-2021 में जारी अधिसूचना में घटाकर
1995.48 वर्ग किलोमीटर कर दिया गया। उसमें भी घना हसदेव अरण्य शामिल न होना हैरान
करता है जो पर्यावरणीय व जैवीय विविधतताओं से भरपूर है। पास ही अचानकमार और
कान्हा टाइगर रिजर्व व बोरामदेव वन्य जीव अभ्यारण्य हैं जिनका करीबी भौगोलिक जुड़ाव
है। यहां संरक्षित प्रजाति के वन्य जीवों शेर, हाथी, तेंदुआ, भालू, भेड़िया, धारीदार लकड़बग्घों
को विचरते देखा जाता है।
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री इसी जनवरी में लेमरू अभ्यारण्य की जद में आने वाली 39
खदानों से कोयला उत्खनन और नीलामी प्रक्रिया रुकवा दी जो अच्छा कदम है। लेकिन
सवाल यह कि क्या ऐसा दूसरी जगह भी हो पाएगा? महत्वपूर्ण हसदेव अरण्य पर चुप्पी और
मप्र के सोहागपुर एरिया के धनपुरी, अमलाई, शारदा, खैरहा की जब-तब विस्तारित होतीं
ओपेनकास्ट खदानें और नई प्रस्तावित रामपुर-बटुरा सहित अन्य दूसरी खदानों तक हाथियों
की धमक ने बड़ा प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया। कभी यहां जबरदस्त घने जंगल थे। लाखों पेड़
कट गए जिनका कोई हिसाब नहीं। लेकिन हाथियों ने अपना पुराना आशियाना नहीं भूला जो
अब शहडोल प्रशासन के लिए सिरदर्द बना हुआ है। हां, खदानों की सेहत पर कोई फर्क नहीं
पड़ा। बचे खुचे जंगल भी धड़ाधड़ कट रहे हैं जिस पर जहां पर्यावरण की दुहाई देने वाले चुप
हैं वहीं संबंधित विभाग अनापत्ति देने से परहेज नहीं करता है। भटकते वन्य जीवों के
मौजूदा हालात के चलते खदानों के विस्तार, नई की इजाजत पर फिर सोचना
होगा। सवाल वही कि क्या हम विकास देखें या विलुप्त होते वन्य जीवों का
संरक्षण? इस द्वन्द से हमारे नुमाइन्दों व शासन-प्रशासन, प्रकृति व वन्य जीवों
के लिए चिन्तातुरों को बाहर निकलना होगा।
हाथियों के हमले से हर साल लगभग 500 भारतीय मारे जाते है। करीब 100 हाथी
भी जान गंवाते हैं। ये आंकड़ा बाघ या तेंदुए जैसे जानवरों के शिकार इंसानों से 10 गुना
ज्यादा है। 2015 से 2020 तक लगभग 2500 लोगों को हाथी मार चुके हैं। फरवरी 2019 में
संसद बताया गया कि बीते 3 वर्षों में 1713 इन्सान और 373 हाथियों की जान गई। बेहद हैरानी
भरी सच्चाई भी सामने आई जिसमें सबसे ज्यादा हाथियों की मौतें बिजली के करंट लगने से हुईं जो
226 है। 62 हाथी ट्रेन से मरे जबकि 59 शिकारियों के हाथों और 26 को जहर देकर मार गया।
संकटग्रस्त प्रजातियों के प्राकृतिक संरक्षण खातिर अंतर्राष्ट्रीय संघ यानी
इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर(आईयूसीएन) की रेड लिस्ट है। यह

स्विटजरलैण्ड से अपडेट होती है। इसमें एशियन हाथी भी “लुप्तप्राय” प्राणियों में सूचीबद्ध
है। यहां सभी देशों के 16000 वैज्ञानिकों और 1300 भागीदार संगठनों की जानकारी रहती है।
हाथियों से हुए नुकसान की भरपाई व इन्सानी मौतों के मुआवजे में करोड़ों रुपए जाते
हैं। लेकिन सच यही है कि हाथियों की राह में इन्सान खुद रोड़ा हैं। एक सर्वे में खुलासा हुआ
है कि भारत में 88 चिन्हित रास्ते हैं जिनसे सदियों से हाथी आवागमन करते रहे हैं। वहीं
2017 में जारी महत्वपूर्ण जानकारियों वाले 800 पृष्ठ के अध्ययन ‘राइट ऑफ पैसेज’ में
हाथियों के 101 भारतीय गलियारों की पहचान संबंधी जानकारियां है। जिनमें 28 दक्षिण, 25
मध्य, 23 पूर्वोत्तर, 14 उत्तरी पश्चिम बंगाल में और 11 उत्तर-पश्चिमी भारत में हैं। तीन में दो
गलियारों में खेती होना तो दो तिहाई के पास रेल लाइनें या सड़कें बन गईं। 2 गलियारे
खनन और उत्खनन से बाधित हैं। 11 प्रतिशत पास से नहरें निकलने लगीं। जाहिर है
गलियारों के स्वरूप बदलने या खत्म करने से हाथियों के स्वछंद विचरण में ढेरों बाधाएं हैं।
इससे क्रुध्द हाथियों ने घनी आबादी में दाना-पानी की तलाश खातिर जबरदस्त उत्पात
मचाना शुरू कर दिया।
अपनी आदत और जबरदस्त याददाश्त को पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानान्तरित करते हाथी
बरसों पुराने इलाके में आ जाते हैं। हमें लगता है कि वो आबादी, बाग, बगीचों या खेत,
खदानों में कैसे आ गए? लेकिन सच तो यह है कि हमने ही उल्टा इनके ठिकानों पर कब्जा
कर लिया है। बस यही हाथियों और इन्सान के संघर्ष की असल वजह है। हमने जंगलों का
तेजी से नाश किया जिससे जंगली उपज घटी। इसी कारण बन्दर, हिरण, सांभर, जंगली
सुअर व कुत्ते, सियार नील गाय भी कथित इन्सानी बस्तियों और खेतों में आ धमकते हैं।
हाथी जरूर सबका साथी था लेकिन अब शायद वह भी समझ गया कि कौन उसके अस्तित्व
को मिटाने पर तुला है?
अगस्त 2018 में केल्हारी (मनेन्द्रगढ़) में एक डिप्टी रेंजर को सूंड में लपेट जमीन पर
पटक-पटक मार दिया। घण्टों उत्पात मचाया और शव उठाने वाली टीम के छक्के छुड़ा दिए।
3 नवंबर 2021 को मरवाही (छग) के अमारू वनमंडल में 14 हाथियों के मूवमेण्ट को देखने
वहां के एसपी त्रिलोक बंसल अपनी पत्नी, परिवार के साथ उत्साह से पहुंचे। हाथी भला एसपी
साहब को क्या पहचाता? मनाही के बावजूद घ जैसे ने जंगल में पहुंचे, एक ने सूंड में लपेट
पटक दिया उनकी पत्नी को भी खदेड़ा। दोनों को काफी चोटें आईँ। यह तो बस चंद चर्चित
मामले हैं। रोजाना कहीं न कहीं हाथियों के उत्पात की सच्चाई सामने होती है।

हैरानी की बात है कि हाथियों से बचाव के न कोई ठोस उपाय है, न रणनीति। ऐसा
लगता है कि वन विभाग भी सही ढ़ंग से निदान के बारे में ज्यादा कुछ नहीं कर पाता है।
यह बड़ी विडंबना नहीं तो और क्या है जो हम अत्याधुनिक संसाधनों से लैस होकर भी
हाथियों के आक्रमण या काबू रखने का कोई कामियाब तरीका नहीं निकाल पाए! मोटी पगार
और बड़े-बड़े पदों में बैठे जंगलों के अफसरों क्यों नहीं नए और वैज्ञानिक तरीके खोजते हैं?
हाथियों का व हाथियों से बचाव की तरफ गंभीर होना होगा। दिनों दिन गजराज के ताण्डव
की दहलाती घटनाओं से बेहद सुन्दर और बुध्दिमान जानवर जहां निशाने पर है वहीं इसके
निशाने पर भी वहीं है जिन्होंने नाइंसाफी की है। लगता नहीं कि मधुमक्खियों, मशाल, ढ़ोल,
नगाड़ों या पटाखों या फिर लाठी, डण्डों से इतर कोई नई तकनीक जल्द ईजाद जिससे
हाथियों का संरक्षण भी हो और जन-धन हानि भी रुके। काश वन्य जीवों की रिहाइश में
इन्सानी दखल रुक पाती औरएक बार फिर हाथी मेरा साथी बन जाता।