शहर से लेकर गांवों में संचालित हो रहीं गौशालाओं में आज भी पशुओं के गोबर और मूत्र का निस्तारण पारंपरिक तरीके से किया जा रहा है। जहां ज्यादा संख्या में मवेशी हैं, वहां जल और वायु प्रदूषण को ध्यान में रखते हुए गोबर के कंडे, कंपोस्ट खाद के साथ मूत्र से गोनाइल बना रहे हैं। इससे गौशालाओं की आर्थिक आय का एक बड़ा विकल्प तैयार हुआ है।
यही कारण है कि कृषि विश्वविद्यालय में फल और सब्जियों की पैदावार में जैविक पद्धति का सहारा लिया जाता है। इसके लिए प्रायोगिक रूप से प्याज की खेती में गौमूत्र का सफल प्रयोग कृषि वैज्ञानिकों ने किया है। प्रदेश भर में कुल 111 सरकारी पंजीकृत गौशालाएं हैं। इनकी देखरेख के लिए शासन प्रति वर्ष 20 लाख रुपये देता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि गोबर-मूत्र का वैज्ञानिक तरीके से खेतों में उपयोग किया जाए तो धरती सोना उगलेगी।
पर्यावरण की दृष्टि से मुक्तिधाम में कंडे का उपयोग पिछले कुछ वर्षों से बढ़ गया है। इसी दिशा में राजनांदगांव की बड़ी गौशाला पिंजरा पोल समिति बड़े स्तर पर कार्य कर रही है। समिति के संरक्षक खूबचंद पारेख की मानें तो संस्था मुक्तिधाम के लिए भी काम कर रही है। लकड़ी की खपत कम करने के लिए कंडे का उपयोग शुरू किया गया।
गोमूत्र का बनाते हैं अर्क
गौशालाओं में गोबर से खाद बनाने का प्रचलन है, लेकिन गौमूत्र को लेकर अभी जागरूकता नहीं आई है। श्रीकृष्ण गौशाला जीव रक्षक छाता गढ़, मोहलई दुर्ग के अध्यक्ष कांतालाल पारेख ने बताया कि गौमूत्र जमा करने का काम कठिन है। फिलहाल स्थानीय लोगों की मांग के अनुसार गोमूत्र जमा किया जाता है। गोमूत्र का अर्क भी तैयार किया जाता है।
कृषि विवि के वैज्ञानिक डॉ. घनश्याम साहू का कहना है कि गौशालाओं को गोबर, मूत्र का वैज्ञानिक तरीके से उपयोग करते हुए खाद तैयार करनी चाहिए। जानवरों के मल-मूत्र, बिछावन और वनस्पति कचरों का संग्रह छोटे-छोटे गड्ढों में करना चाहिए। तकनीक सीखकर किसान स्वयं गड्ढे में कम समय में उत्तम गुणों वाली खाद बना सकते हैं, जिसमें जीवांश और पोषक तत्व भरपूर मात्रा में होते हैं।
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