झारखंड की माटी इस वक्त नई फसल की खुशबू बिखेर रही है। खेत-खलिहान चहक रहे हैं। किसानों के चेहरे पर इस खुशहाली को आसानी से आप भी महसूस कर सकते हैं। खलिहानों में धान की दवनी हो रही है। कई किसानों ने दवनी कर ली है। धान बेचने व सहेजने का सिलसिला भी जारी है। इस बार बरसात ने भी किसानों का साथ दिया] इसलिए उपज भी बेहतर हुई है। ऐसे खुशनुमा पल में झारखंड के आदिवासी किसान गांव-गांव डाइर जतरा मेला का आनंद उठा रहे हैं।
दरअसल, डाइर जतरा मेला नई फसल आने की खुशी में मनाया जाता है। बरसात के दौरान खेती-किसानी में व्यस्त रहने वाले आदिवासी किसान अपनी फसल को घर में सुरक्षित रखने के बाद डाइर जतरा के बहाने एक साथ मिलजुलकर खुशियां मनाते हैं। इस दौरान लोग अपनी परंपराओं को जीवित रखने के साथ आपस में सुख और दुख की बातें करते हैं। मिलकर एक साथ नाचते-गाते हैं। इसी उत्सव के साथ आदिवासियों का मंगल कार्य शुरू होता है।
अलग-अलग इलाकों में डाइर जतरा का आयोजन अलग-अलग दिवस में होता है। इसके लिए कोई तारीख तय नहीं है। डाइर जतरा में आदिवासी समाज सिर्फ मनोरंजन ही नहीं करते, यह मेला जनजातीय समाज की संस्कृती, परंपरा और उनकी आर्थिक सरंचना का इतिहास भी बताता है। गांव, मोहल्लों में जहां मांदर की थाप व लोक गीतों के रंग देखने को मिलते हैं, वहीं, मेहमानों से घर रौनक भी नजर आते हैं।
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