Lok Shakti

Nationalism Always Empower People

ताज से बड़ी हैं हमारी तीजन, निरक्षर होने के बावजूद नाम के आगे लगा डॉक्टर

केंद्र शासन ने विख्यात पंडवानी गायिका डॉ. तीजन बाई को पद्मविभूषण सम्मान देने की घोषणा की है। हालांकि वे आज जिस मुकाम पर हैं, वहां कोई सम्मान यानी ‘ताज’ अब मायने नहीं रखता। वे अब उससे ऊपर हो गई हैं। पद्मश्री, पद्मभूषण के बाद अब पद्म विभूषण, तीन-तीन डी-लिट की उपाधियां उनकी उपलब्धियों में शुमार हैं। उनके लिए यह भी कहा जा सकता है कि कला के क्षेत्र में उन्होंने जो ऊंचाई पा ली है, उसके बाद अब कुछ हासिल करने को बचता नहीं। ऐसे तीजन पर भला पूरा छत्तीसगढ़ क्यों न करे गर्व।

महाभारत कथा को पंडवानी शैली में गाते अपने नाना को छिप-छिपकर देखने वाली नन्ही तीजन आज पंडवानी की पहचान बन गई हैं। पारधी परिवार में तंगहाली के दौर में बचपन गुजरा। स्कूल का मुंह तक नहीं देखा। लेकिन अपनी कला कौशल से देश ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुनहरी छाप छोड़ दी है। उपलब्धियों में एक और सितारा पद्मविभूषण सम्मान जुड़ जाने से उत्साहित तीजन बाई कहती हैं कि अब इस विधा को जीवित रखने के साथ ही संस्कृति के रूप में पल्लवित करने प्रशिक्षण में सरकार सहयोग दे।

नाना से हुईं प्रेरित दुर्ग जिले के पाटन ब्लाक के अंतर्गत ग्राम गनियारी में 24 अप्रैल 1956 को पारधी परिवार में तीजन बाई का जन्म हुनुकलाल पारधी-सुखवती के घर हुआ। उस दौर में पारधी संप्रदाय का मूलतः पेशा पेड़ों के पत्ते से झाडू बनाना और बेचना था। गांव के एक किनारे में छोटे छप्पर वाली कच्ची झोपड़ी में तंगहाली के बीच इस परिवार का गुजारा होता था। पास ही तीजन के नाना बृजलाल पारधी भी रहते थे।

बृजलाल पंडवानी गाते थे। मंडली के साथ इस कला की प्रस्तुति भी वे देते थे। वे जब रियाज करते तो तीजन छिपकर महाभारत की कथा सुनती और बाद में उसे गुनगुनाती। एक दौर ऐसा भी आया जब कई प्रसंग तीजन को कंठस्थ हो गया।

एक दिन उसे महाभारत का प्रसंग गुनगुनाते हुए बृजलाल ने देख लिया। इसके बाद पंडवानी का प्रशिक्षण देने लगे। तीजन की लगन देख उन्हें इस विधा में और मांजने बाद में पंडवानी कलाकार उमेंद्र सिंह देशमुख ने भी प्रशिक्षण दिया।

कपालिक शैली में पहली महिला 

पंडवानी में महाभारत के विभिन्न प्रसंगों को गाकर सुनाया जाता है। इसमें दो शैली होती है- पहली वेदमति, जिसे कलाकार बैठकर सुनाते हैं। वहीं दूसरी कपालिक शैली है, जिसमें कलाकार खड़े होकर गायन के साथ कथा सुनाते हैं। उस दौर में कपालिक शैली में केवल पुरुष ही गाते थे। इस एकाधिकार को तीजन ने तोड़ा और कपालिक शैली में पंडवानी की प्रस्तुति देने लगीं।

तिरस्कारों के बीच डिगीं नहीं

पारधी समाज को यह नागवार गुजरा की समाज की लड़की पंडवानी गा रही है वह भी कपालिक शैली में। तीजन के परिवार को तब सामाजिक प्रताड़ना भी झेलनी पड़ी। अंततः उनका परिवार वर्ष 1969 में दुर्ग जिले के ही चंदखुरी गांव में आकर बस गया। सामाजिक तिरस्कार के बावजूद तीजन टूटीं नहीं। तेरह साल की उम्र में चंदखुरी गांव में ही उन्होंने अपनी पहली सार्वजनिक प्रस्तुति दी।

हबीब ने परखा और तराशा

ख्यातिप्राप्त रंगमंच कलाकार हबीब

तनवीर एक कार्यक्रम में तीजन बाई की कला को देखकर प्रभावित हुए। उन्होंने तीजन को कई बड़े मंच उपलब्ध कराए। उन्होंने ही पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी से तीजन को बतौर कलाकार मिलवाया। वे भी तीजन की कला देख जमकर बखान किया। इसके बाद देशभर में तीजन को कई मंच मिले।

अब बच्चियों को सिखा रहीं लोक कला

डॉ. तीजन बाई की उम्र 63 वर्ष के करीब है। बावजूद प्रसंगों के दौरान उनकी दबंग आवाज आज भी दर्शकों को अपनी ओर खींच लेती है। वे कहती हैं कि अभी भी देश में सालभर में आठ से दस स्थानों पर प्रस्तुति देती हैं, जो कि पहले से बहुत कम है।

उनका कहना है कि वे अब इस कला को शिक्षा के रूप में अलग-अलग स्थानों पर 217 बेटियों के बीच बांट रही हैं। इसमें 16 बच्चे अमेरिका के भी हैं, जिन्हें वे अपने प्रवास के दौरान सिखाती हैं। उनकी मंशा है कि सरकार इस दिशा में सहयोग दे, जिससे वे नियमित रूप से प्रशिक्षण दे सकें। उन्होंने बताया कि उन पर एक फिल्म भी बनने वाली है, लेकिन इस दिशा में उन्हें ज्यादा कुछ नहीं बता सकती।

भिलाई इस्पात संयंत्र का भी रहा साथ

तीजन कहती हैं कि उनके इस कला जीवन में भिलाई इस्पात संयंत्र (बीएसपी) का फौलादी साथ भी मिला। उनकी कला से प्रभावित होकर बीएसपी ने उन्हें नौकरी दे दी। वहां के अधिकारियों व कर्मचारियों से सहयोग और स्नेह मिला। उन्होंने बताया कि तीन शादियां हुईं।

पहले पति ने पंडवानी गायने करने के कारण छोड़ दिया। दूसरे को पंडवानी की प्रस्तुति देने के लिए देश विदेश जाने पर आपत्ति थी। वहीं तीसरे को इस बात की ईर्ष्या थी कि उसे वह सम्मान नहीं मिल पाता था, जो मुझे मिलता था।

तानपुरा ही अब सब कुछ

डॉ. तीजन बताती है कि बीएसपी से सेवानिवृत्ति के बाद वर्तमान में अपने परिजनों के साथ गनियारी में ही रहती हैं। मंच पर उनके हाथों में रहने वाला रंगीन फुंदनों से सजा तानपुरा ही अब सबकुछ है। वे कहती हैं कि प्रसंग के साथ चेहरे का हावभाव बदलना हर कलाकार के बूते की बात नहीं। उत्साह, उमंग, जोश, क्रोध, दर्द, छल और कपट भरे भाव और संवेदना को महसूस कराना कठिन होता है।

इन सम्मानों से नवाजी गई

– 1995 में संगीत अकादमी अवार्ड

– 1998 में पद्मश्री अलंकरण

– 2003 में पद्मभूषण अलंकरण

– 2007 में नृत्य शिरोमणी अवार्ड

– 2018 में एशियाई संस्कृति पुरस्कार (जापान)

– 2019 में पद्मविभूषण अलंकरण

– 03 विश्वविद्यालयों से डाक्टरेट की उपाधि