बेशक, कर्नाटक के विधानसभा चुनाव का ऐलान मंगलवार को हुआ हो, पर सूबे में सियासी दंगल तो बहुत पहले ही शुरु हो चुका है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब तक सूबे में आठ रैलियां कर चुके हैं। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह भी बीते महीनों के दौरान यहां चार-चार बार जा चुके हैं। कांग्रेस और भाजपा के राष्ट्रीय नेताओं की सूबे में यह सघन आमदरफ्त इस बात का सबूत है कि कर्नाटक में अबके का विधानसभा चुनाव केवल सूबे में एक निर्वाचित सरकार के गठन भर के लिए नहीं है। असल में, भाजपा और कांग्रेस के आला नेताओं का बहुत कुछ दांव पर लगा है। मुल्क की सियासत में किसी एक सूबे के विधानसभा में एक साथ इतना कुछ दांव पर लगा हो, ऐसा कम ही देखने को मिलता है।
सूबे की कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और भाजपा की तरफ से मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी बीएस येद्दियुरप्पा का राज्य में अच्छा खासा असर है और इस लिहाज से पहली नजर में विधानसभा चुनाव में इन दोनों ही दिग्गजों में सीधी टक्कर दिखायी पड़ती है। कर्नाटक की राजनीति का तीसरा पक्ष पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा और उनके बेटे एचडी कुमारस्वामी हैं। यानी लड़ाई त्रिकोणीय है। सूबे की सियासत में कुमारस्वामी और उनकी पार्टी जेडीएस की भूमिका भाजपा से थोड़ी ही कम हो, पर मैदान में मुकाबला सत्ताधारी कांग्रेस और भाजपा के बीच का ही नजर आता है तो इसकी वजह भाजपा और कांग्रेस के राष्टÑीय नेता हैं और उनकी दांव पर लगी सियासी इज्जत है।
पहले बात अगर कांग्रेस की इज्जत की करें, तो पंजाब को छोड़ दिया जाए तो यह मुल्क का इकलौता सूबा है, जहां कांग्रेस की सरकार बची है। लिहाजा, इस सियासी दुर्ग का हाथ से निकलना कांग्रेस पर मनोवैज्ञानिक असर डाल सकता है। कांग्रेस कार्यकर्ताओं का उत्साह रसातल में चला जाएगा, जिसका सीधा नुकसान इस साल नवंबर में होने वाले तीन सूबों राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव में उठाना पड़ सकता है। फिर सवाल कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता का भी है। अगर कांग्रेस यह किला फतह नहीं कर सकी, तो राहुल गांधी को पिछले दिनों गुजरात विधानसभा चुनाव के नतीजों से मिली मनोवैज्ञानिक बढ़त भी गुम हो सकता है।
और अगर कांग्रेस दक्षिण का अपना यह किला बचाने में सफल हो गई, तो बतौर अध्यक्ष राहुल गांधी की प्रतिष्ठा कायम हो जाएगी। सो, कांग्रेस के लिए कर्नाटक विधानसभा चुनाव मानो अस्तित्व का सवाल है। चूंकि कर्नाटक के चुनावी नतीजों का रिश्ता मनोविज्ञान से है, लिहाजा दूसरी ओर भाजपा भी इस अवसर को किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाह रही। भाजपा पिछले चार साल से केन्द्र की सत्ता में है और इस दौरान उसने अधिकतर चुनाव जीते ही हैं। बेशक, बिहार, दिल्ली और पंजाब अपवाद माने जा सकते हैं। इन अपवादों से परे पिछले दिनों त्रिपुरा में भाजपा की जीत ने तो उसके मनोबल को मानो आसमान पर ला खड़ा किया था। पर सियासत के खेल भी निराले होते हैं।
त्रिपुरा की जीत के बाद भाजपा का जो उत्साह सिर चढ़कर बोल रहा था, वह महज 10 दिन के अंदर जमीन पर तब आ मिला, जब यूपी में गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा उपचुनाव के नतीजे सामने आये। भाजपा तीन दशक पुरानी गोरखपुर की अपनी सीट भी हार गई। उपचुनाव की इस हार ने नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की जुगल जोडी को हिला कर रख दिया है। बेशक, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह उपचुनाव की हार को एक विचलन बता रहें हों, पर यह हकीकत भी वे बखूबी जानते हैं कि अगर वे कर्नाटक जीतने में विफल रहे, तो मोदी सरकार के विफल होने पर यह जनता की मुहर मानी जाएगी। और जिस नतीजे का सीधा असर आने वाले विधानसभा चुनाव पर पड़ेगा। लिहाजा, दोनों ही पार्टियों के लिए लड़ाई या तो कर गुजरने की है या फिर मरने की है। पर करो और मरो की इस लड़ाई में आगे नतीजा जो भी रहे, अबतक सूबे के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने मोदी-शाह की जुगल जोड़ी के दांत खट्टे कर रखे हैं।
गोया, भाजपा के हर एक दांवपेंच का काट उनने खोज रखा है। भाजपा ने शुरुआत में जहां अपनी जानी पहचानी रणनीति के तहत टीपू सुल्तान को हिंदू विरोधी साबित करने की कोशिश की, तो सिद्धारमैया ने उसकी काट के तौर पर कन्नड़ स्वाभिमान का सवाल खड़ा कर दिया और सूबे के लिए अलग झंडा दिलाने की बात कर दी। लिंगायत समुदाय को नया धर्म का दर्जा देने की बात कर तो, गोया उनने भाजपा को निहत्था ही कर देने की जुगत लगा डाली। लिंगायत परंपरागत तौर पर भाजपा को वोट देते रहे हैं। भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी बीएस येद्दियुरप्पा खुद लिंगायत समाज से है। पर मुख्यमंत्री के लिंगायत को अलग धर्म के दांव ने भाजपा को सकते में डाल दिया है। यानी धर्म और सियासत का घालमेलए जो अबतक भाजपा का यूएसपी रहा है, कर्नाटक में उसे सिद्धारमैया अपनाते नजर आ रहे हैं।
भाजपा को उनके इस दांव का अबतक कोई कारगर काट नहीं सूझ रही है। मुमकिन है इसी बदहवासी के आलम में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह अर्थ का अनर्थ कर बैठे। मंगलवार को कहने लगे कि भ्रष्टाचार के लिए अगर स्पर्धा कर दी जाए तो येदियुरप्पा सरकार को भ्रष्टाचार में नंबर एक सरकार का दर्जा मिलेगा। जब बगल में बैठे एक सांसद ने गलती बतलायी तो सुधार किया। पर तीर तो निकल चुका था, सिद्धारमैया ने जवाब देने में तनिक देर न की। कहा, सच बोलने के लिए थैंक्यू अमित शाह। तो क्या यह बेखुदी बेसबब नहीं है।
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