मराठों के आगमन और आक्रमण से पहले प्रयागराज की धरती पर छत्रपति शिवाजी के गुरु संत समर्थगुरु रामदास के पांव पड़े थे। बालपन में मां उन्हें नारायण सूर्याजीपंत कुलकर्णी कहकर बुलाती थीं। आरंभ से ही आध्यात्मिक प्रवृत्ति के नारायण, राम के अनन्य भक्त थे सो अपने को राम का दास बताने के कारण उनका नाम रामदास पड़ गया। मात्र चौबीस वर्ष की आयु में भारत भ्रमण पर निकले रामदास ने कश्मीर से कन्याकुमारी तक तकरीबन 1100 मठों, अखाड़ों की स्थापना की।
भारत भ्रमण के दौरान हनुमत उपासक रामदास ने नवचेतना के निर्माण के उद्देश्य से जगह-जगह हनुमानजी की मूर्ति स्थापित करने के साथ ही मठ एवं मठाधीश बनाए। इसी क्रम में वह प्रयागराज भी आए और यहां दारागंज के पूर्वी छोर पर गंगा किनारे उन्होंने संकटमोचन हनुमान की दक्षिणमुखी प्रतिमा की स्थापना की। वर्तंमान में रेलवे पुल के उत्तर स्थापित संकटमोचन का यह मंदिर आस्था का प्रमुख केंद्र है।इलाहाबाद विश्वविद्यालय के मध्यकालीन इतिहास विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रोफेसर हेरंब चतुर्वेदी का कहना है कि सन 1632 से 1640 ईसवी के बीच प्रयागराज आए समर्थगुरु रामदास ने प्रवास के दौरान मूर्ति स्थापना के साथ ही माघ मेले में रहकर संगम की रेती पर साधना भी की। कहते हैं, संगम की रेती पर ही उनकी अतुलनीय बौद्धिक क्षमता के कारण संतों ने रामदास का नामकरण समर्थ गुरु रामदास कर दिया। लेकिन, यहां से काशी पहुंचने पर काशी की विद्वत परिषद ने अभिषेक करके उनके नामकरण की पुष्टि की।
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