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मराठे और प्रयागराज : बैजा बाई के नाम पर ही मोहल्ले का नाम पड़ा ‘बाई का बाग’

दारागंज के प्रसिद्ध वेणी माधव मंदिर से इतर बाई का बाग मोहल्ले में भी पेठा वाली सड़क के ठीक सामने बने वेणी माधव मंदिर के साथ मराठों की कड़ियां जुड़ी हुई हैं। और प्रयागराज से मराठों के रिश्ते की मिठास की बात बैजा बाई के बिना पूरी ही नहीं हो सकती है। ग्वालियर के श्रीमंत दौलत राव सिंधिया की पत्नी बैजा बाई साहेब ने ही वर्ष 1833 में इस मंदिर का निर्माण करवाया था और उन्हीं के नाम पर इस क्षेत्र का नाम ‘बाई का बाग’ रखा गया।इतिहासकार बताते हैं, विनम्र और धार्मिक प्रवृत्ति की महिला बैजा बाई साहेब जब भी इलाहाबाद या वाराणसी जैसे धार्मिक स्थलों की यात्रा पर आतीं थीं तो धार्मिक कार्यक्रमों के बाद आमजन के लिए भंडारे भी आयोजित कराती थीं क्योंकि सेवाभाव उनके चरित्र का अभिन्न गुण था। प्रयागराज से जुड़े और फिलहाल सूरत के संयुक्त आयकर आयुक्त अंजनी कुमार पांडेय ने बैजाबाई के योगदान को रेखांकित किया।
कहा, वाराणसी में घाट और मंदिर निर्माण के दौरान वह इलाहाबाद में कई वर्षों तक रहीं। इस दौरान पेठा वाली सड़क के सामने उन्होंने बाग के साथ ही सामने की ओर कई कोठरियां और वेणीमाधव मंदिर भी बनवाया। बहुत कम लोगों को पता होगा कि बैजा बाई के यहां ठहरने और बाग बनवाने के कारण ही बाद में इस क्षेत्र को ‘बाई का बाग’ के नाम से जाना जाने लगा।नागर स्थापत्य कला की छाप वाले वेणीमाधव मंदिर के  गर्भगृह में  श्री वेणी माधव और गरुण की मूर्तियां हैं और इनके पास ही बैजा बाई साहेब की भी संगमरमर की मूर्ति है। मंदिर के  शिखर पर  सिंधिया राजवंश का प्रतीक ‘दो नागों से घिरी भव्यता के बीच सूर्य की आकृति’ भी उकेरी गई है। पथरचट्टी रामलीला कमेटी के प्रवक्ता लल्लू लाल गुप्त ‘सौरभ’ कहते हैं, दशहरा के दिन दशानन वध की लीला के बाद ‘भगवान राम’ इसी वेणीमाधव मंदिर में पूजन-अर्चन के लिए आते हैं। फिर यहीं से पथरचट्टी के रामदल का आरंभ होता है। यह परंपरा दशकों से चली आ रही है।
वेणीमाधव मंदिर के निकट रहने वाले शांताराम दामले ने जोड़ा, आजादी के पहले परिसर में बतौर किराएदार रहने आए मेरे पिता डीएन दामले बताते थे, कभी इस क्षेत्र में जंगल ही जंगल था। बाई जी के बाग के भीतर आम और अमरूद के पौधे लगे थे, जिनकी आय से मंदिर की देखरेख होती थी। बाद में जब बाग के करीब की जमीन पर अतिक्रमण होने लगा तो राजमाता सिंधिया ने मंदिर परिसर को छोड़कर बाकी जमीन बेच दी। फिलहाल मंदिर का प्रबंधन सिंधिया देवस्थान ट्रस्ट, ग्वालियर के पास है। मंदिर के रखरखाव के लिए ग्वालियर स्टेट से ही रकम आती है।