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एक व्यक्ति या एक परिवार की मुट्ठी में पार्टी का होना क्या प्रजातांत्रिक भारत में उचित है?

पीएम मोदी ने  कहा, ” उस तरफ वो लोग हैं जिनके लिए उनका परिवार ही उनका देश है और मेरे लिए मेरा देश ही मेरा परिवार है. देश के सवा सौ करोड़ लोग ही मेरा परिवार है. गंवाने के लिए मेरे पास सिर्फ आपका प्यार और आशीर्वाद है. करने के लिए मेरे पास सिर्फ सवा सौ करोड़ देशवासियों की सेवा है.”उस तरफ कौन है? प्रमुख है नेहरू-गांधी परिवार। उसी के इर्द-गिर्द इक_ी हैं अन्य परिवारवादी पार्टियां जैसे – सपा, टीएमसी, बसपा, आरजेडी, डीएमके आदि।
कांग्रेस पार्टी के नेता यह घोषित कर चुके हैं कि उनकी हार का प्रमुख कारण उनकी मुस्लिम तुष्टिकरण नीति और उनके नेहरू-गांधी परिवार का वेटीकन सिटी से निकट का संपर्क होना तथा हिन्दुओं के विरूद्ध षडयंत्र करना। अपनी इस छाप को मिटाने के लिये फिरोज खान के पौत्र राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद जनेऊधारी ब्राम्हण का रूप धर लिया है। हिन्दुओं के साथ इस प्रकार से छल-कपट करना पंडित नेहरू के समय से ही चला आ रहा है।
कांग्रेस पार्टी सदैव से ही नेहरू-गांधी परिवार की मु_ी में रही है। यह परिवार भारत मेें छ: दशक से भी अधिक वर्षों तक सत्ता सुख भोगते रहा है। अब उससे अछूता रहने से बिन पानी जैसे मछली तड़पती है वैसे तड़प रहा है। यही हाल अन्य परिवारवादी पार्टियों का है। इसलिये ये सभी परिवारवादी पार्टियां एक साथ इकट़्ठी हो गई हैं भाजपा के विरूद्ध ।
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह ने ठीक ही कहा है कि दस सिर वाले इस रावणरूपी गठबंधन के लिये एक राम ही अर्थात नरेन्द्र मोदी ही पर्याप्त हैं।
गांधी परिवार के अंधभक्त मणिशंकर अय्यर भी कांग्रेस अध्यक्ष बनने के इच्छुक थे परंतु उन्होंने भांप लिया था कि यह संभव नही है। इसीलिये उन्होंने वक्तव्य दिया था कि मांबेटे के रहते किसी का कांग्रेस अध्यक्ष बनना नामुमकिन है। उन्होंने कहा था कांग्रेस में जब तक मां और बेटे की सत्ता है, तब तक किसी का भला नहीं हो सकता. चाहे जितने भी सक्रिय नेता कांग्रेस में हों, वे अध्यक्ष पद तक नहीं पहुंच सकते हैं. कांग्रेस में परिवारवाद की परिपाटी शुरू से है.
उन्होंने कहा कि कांग्रेस में राहुल गांधी या उनकी मां सोनिया गांधी के अलावा कोई तीसरा नेता अध्यक्ष पद की चाह नहीं रख सकता. यह वंशवाद की परंपरा है, जो शायद कभी खत्म नहीं होगी.
अधिकांश परिवारवादी पार्टिंया सिर्फ अपने परिवार के हित के लिये ही कार्य करते हुये देश विरोधी नीतियां अपनाने लग जाती हैं।
बसपा की सुप्रीमो मायावती ने अपने आपको परिवारवादी पार्टी कहलाने से बचने के  लिये अब अपने भाई आनंद कुमार को बसपा के उपाध्यक्ष पद से हटा दिया है। परंतु इसी समय उन्होंने अपने आपको दीर्घकाल के लिये जीवनपर्यंत बसपा का सुप्रीमो बने रहने का संकेत भी देकर यह सिद्ध कर दिया है कि इन परिवारवादी पार्टियों का प्रजातंत्र पर कोई विश्वास नही है।
चुनाव आयोग की औपचारिकता पूरी करने की दृष्टि से ये पार्टियां प्रजातंत्र का रूप दिखाने की कोशिश करती हैं। परंतु यह पब्लिक है सब जानती है।
अभी जो परिवारवादी पार्टियों का कुम्बा भानुमति का पिटारा इक_ा हुआ है उसकी हवा निकलनी प्रारंभ हो गई है। अभी कर्नाटक के एक विधानसभा के उपचुनाव में जेडीएस और कांगे्रस पार्टी दोनों एक-दूसरे के खिलाफ लड़ रही है जैसे की वे विधानसभा चुनाव के समय लड़ी थी।
बसपा ने भी बिना लागलपेट के मायावती को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया है। इतना ही नहीं बसपा की सुप्रीमो मायावती ने यह चेतावनी दी है कि यदि गठबंधन में पर्याप्त सीटें बसपा को नहीं मिली तो २०१९ में उसकी पार्टी अकेले चुनाव लड़ेगी।
मायावती ने इस दौरान यह भी कहा कि अगले 20-22 सालों तक बीएसपी का नेतृत्व वही करने वाली हैं। इससे साफ हो गया है कि बीएसपी का कोई नेता मायावती की जगह लेने की तो सोच भी नहीं सकता है। मायावती ने इस दौरान अपने घुटनो में होने वाले दर्द का भी किस्सा बयां किया और यह भी सुनिश्चित किया कि चाहे जो हो जाए बीएसपी तो वही चलाने वाली हैं।
तात्पर्य यही है कि चाहे मायावती हो या और कोई पार्टी का निरूंकुश नेता या नेहरू-गांधी परिवार का कोई सदस्य ये सब नहीं चाहेंगे कि उनकी पार्टी में उनके सिवाय कोई और अध्यक्ष बने अर्थात उनकी पार्टी किसी और के नेतृत्व में चली जाये।

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एक व्यक्ति या एक परिवार की मुट्ठी में पार्टी का होना क्या प्रजातांत्रिक भारत में उचित है?
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