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यह बेचैनी आदिवासियों के चेहरे पर साफ झलकती है।

अबूझमाड़ के जंगल इन दिनों बेचैन हैं। यह बेचैनी आदिवासियों के चेहरे पर साफ झलकती है। इसकी वजह है वनाधिकार कानून। सरकार ने वर्षों बाद वनवासियों को भूमि और पर्यावास का अधिकार देने के लिए कानून बनाया पर बीते 14 साल में अबूझमाड़िया जनजाति को इस कानून का लाभ नहीं मिल पाया है। अबूझमाड़ का जंगल भारत में नक्सलवादियों का सबसे सुरक्षित ठिकाना है। जल-जंगल-जमीन का नारा देकर क्रांति करने वाले नक्सली अबूझमाड़ियों को वनाधिकार से वंचित रखने के लिए बंदूक का सहारा ले रहे हैं। इस मुद्दे पर अब एक नई जंग शुरू होती दिख रही है।

इसकी शुरूआत करीब एक साल पहले हुई। बस्तर में नई शांति प्रक्रिया के संयोजक शुभ्रांशु चौधरी अपनी टीम लेकर अबूझमाड़ गए और अबूझमाड़िया समाज के तत्कालीन अध्यक्ष रामजी धुरवा को सामुदायिक वनाधिकार या पर्यावास के अधिकार के बारे में समझाया। माड़ का अधिकांश हिस्सा घने जंगलों और पहाड़ों से घिरा है। यहां आदिवासी चल या पेंदा खेती करते हैं। समुदाय के बीच उपज के विभाजन की व्यवस्था पुरातनकाल से चली आ रही है। मांझी, पटेल, गायता, पुजारी आदि की समिति तय करती है कि किस परिवार को सामुदायिक खेती या शिकार मेें कितना हिस्सा मिलेगा। ऐसे में यहां व्यक्तिगत वनाधिकार पट्टा किसी काम का नहीं है।

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