गंगा के किनारे दारागंज सब्जी मंडी से नागवासुकि मंदिर की ओर बढ़ने पर दशाश्वमेघ मंदिर और जंगमवाड़ी मठ के बीच पश्चिमी पट्टी पर बने श्रीराम जानकी मंदिर सेवाश्रम को देखकर आप भले ही उसे मंदिरों की श्रृंखला की एक कड़ी समझ बैठें लेकिन सिर्फ इतना ही नहीं है। दो गुंबदों वाला यह मंदिर सेवाश्रम प्रयागराज में मराठों के रिश्तों की अभिन्न कड़ी है। भीतर जाएंगे तो खामोशी से बोलती दीवारें मराठा साम्राज्य के संस्थापक छत्रपति शिवाजी की कहानी सुनाएंगी।
जानकर हैरानी होगी लेकिन अब से पूरे 355 बरस पहले सन 1666 में फलों की टोकरी में बैठकर औरंगजेब की कैद से छूटकर बाहर निकले शिवाजी छिपते-छिपाते प्रयागराज पहुंचे थे। अपने बेटे संभा जी के साथ यहां पहुंचकर महाराष्ट्र के पुरोहित कवि कलश की मदद से उन्होंने इसी श्रीराम जानकी मंदिर सेवाश्रम में आठ दिनों तक शरण ली थी। फिर वह जलमार्ग से यहां से नाव से काशी की ओर रवाना हो गए और फिर बघेलखंड, बुंदेलखंड, मालवा होते हुए सुरक्षित अपने इलाके में पहुंच गए थे।
यात्रा लंबी थी सो अपने बेटे संभाजी को तीर्थपुरोहित के यहां ही छोड़कर वह वाराणसी, बांदा, बुंदेलखंड होते हुए पुणे पहुंच गए। बाद में जब तीर्थपुरोहित कवि कलश, बेटे संभा जी को पालकी में बिठाकर छत्रपति शिवाजी के पास पुणे पहुंचाने गए तो वहां उनका भव्य स्वागत हुआ था। न सिर्फ मराठा पुरोहित कवि कलश को सम्मानित किया गया बल्कि उन्हें मंत्री पद के साथ ही जागीर भी दी गई।वहीं तब इलाहाबाद में भी मुगलों का आधिपत्य था, ऐसे में मुगल दरबार तक शिवाजी के ठौर की सूचना कभी भी पहुंच सकती थी। लेकिन इतिहासकार विश्वंभर नाथ पांडे के हवाले से इलाहाबाद विश्वविद्यालय के मध्यकालीन इतिहास विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो.हेरंब चतुर्वेदी कहते हैं, शिवाजी ने अपने राज को राज रखने के लिए यहां से सूबेदार को नजराने के तौर पर स्वर्ण मुद्राएं दी थीं। छत्रपति शिवाजी और संभा जी से आरंभ मराठों के इलाहाबाद आने का सिलसिला बाद तक बना रहा। लेकिन, इससे भी पहले समर्थ गुरु रामदास भी यहां आए थे।तीर्थपुरोहित पंचभइया के पूर्वजों ने की थी मददश्रीराम जानकी मंदिर सेवाश्रम के बगल से लल्लू गुरु की गली होकर वेणीमाधव मंदिर के लिए आगे बढ़ने पर उत्तर की ओर तीर्थपुरोहित पंचभइया का आवास है। छत्रपति शिवाजी को इलाहाबाद में ठौर देने वाले तीर्थपुरोहित के वंशज का दावा करने वाले महाराष्ट्र के तीर्थपुरोहित के वंशज रामजी पंचभइया कहते हैं, पूर्वजों के पास पांच स्टेट की यजमानी थी सो उनका नाम पंचभइया पड़ गया। अब से तकरीबन साढ़े तीन सौ बरस पहले जब शिवाजी महाराज ने इलाहाबाद आने पर यहां ठौर ली थी, तब पंचभइया पुरोहितों का बड़ा आहाता था जो अब कई भाइयों में बंट गया है। वहीं शिवाजी महाराज, मंदिर में बनी जिन कोठरियों में ठहरे थे, अब वे कोठरियां भी नहीं हैं लेकिन मंदिर में उनकी यादें रची-बसी हैं।
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